नवजात शिशु के उत्तम स्वास्थ्य का परीक्षण
नवजात शिशु के उत्तम स्वास्थ्य का परीक्षण
शिशु के जन्मते सिर का व्यास 35 सेमी. होता है तथा शिशु नाक से श्वास लेता है। श्वसन गति सामान्य स्थिति में 20 से 100 तक हो सकती है। (सांस प्रायः 40 से 44 तक प्रति मिनट होती है।) दिल की गति 120 से 140 तक प्रति मिनट, रक्तचाप सिस्टोलिक 75 से 100 तथा डायास्टोलिक 70 मि.मि. आफ मरमरी तथा तापक्रम 100 फा. पैदा होने पर रहता है तथा बाद में 1 से 2 डिग्री फारेनहाइट कम हो जाता है। देखने की शक्ति विकसित नहीं रहती है। सर का गूमड़ जो एक दिन में समाप्त हो जाता है।
नवजात शिशु की त्वचा उप-उत्त्वक (Vernix Caseosa) तथा शरीर पर उस समय के रहने वाले बाल विशेष (Lanugo hairs) रंग गुलाबी तथा हाथ-पैर नीले (लाल त्वचा कपड़े के रगड़ वाले स्थान पर) कभी-कभी बाह्य जननांगों में शोथ (सूजन) होती है जो धीरे-धीरे स्वयं ही खत्म हो जाती है और इस शोथ से कोई किसी प्रकार की हानि नहीं है। कभी-कभी नवजात शिशुओं की त्वचा में हल्का पीलापन दीखता है जो 2-3 दिन में स्वतः ही समाप्त हो जाता है।नोट-यदि ऐसा न हो तो तुरन्त किसी अच्छे चिकित्सालय में जाकर चिकित्सक के परामर्शानुसार चिकित्सा करायें ।
नवजात शिशु का नाभि नाल 24 घंटे में सिकुड़ना प्रारम्भ हो जाता है। रंग गाढ़ा हो जाता है तथा सात दिनों में नाल गिर जाती है।
नवजात शिशु के मलद्वार का निर्माण हुआ है या नहीं, यह देखें। काला पाखाना प्रथम 3-4 दिन तक 3-4 बार हुआ करता है। जन्म के 12 घंटे में ही प्रथम बार पाखाना हो जाता है। यदि न हो तो आन्त्रिक अवरोध हेतु किसी रजिस्टर्ड चिाकत्सक से निरीक्षण करवाकर उपचार करायें। बाद में Brown Yellow (भूरा-पीला) पाखाना आने लगता है तथा स्तनपान से सुनहला, पीला, मुलायम 1 से 6 बार तक पाखाना आता है। शीशी से दूध पिलाने पर पीला, कड़ा, बदबूदार (फटा-फटा दूध सा भी) पाखाना आता है। कभी-कभी सामान्य रूप से दुग्धपान के समय भी पाखाना होता है।
प्रसव के समय ही अथवा उसके तुरन्त बाद मूत्र त्याग हो जाता है। मूत्र त्याग न होने पर ध्यान देना आवश्यक है। प्रथम सप्ताह में कम से कम 2 औस तथा द्वितीय सप्ताह में 20 गुना अधिक शिशुओं को मूत्रत्यांग हुआ करता है।
कभी-कभी नवजात बालक-बालिकाओं में स्तन बढ़े हुए मिल सकते हैं। ओस्ट्रोजेन (Oestrogen) नामक हारमोन के कारण, और कभी-कभी इनसे स्राव भी हो सकता है, किन्तु उक्त दोनों कारणों के लिए उपचार को कतई आवश्यकता नहीं है, केवल स्वच्छता का ही ध्यान व वातावरण रखें। एक सप्ताह में यह समस्त उपद्रव स्वतः ही ठीक हो जाते हैं।
कभी नवजात शिशु (बालिका) के योनिमार्ग से रक्तस्त्राव भी (कभी-कभी 2 दिन तक) हो सकता है। इस हेतु भी किसी उपचार की आवश्यकता नहीं, यह भी स्वतः ही बन्द हो जाता है।
नवजात शिशु का प्रसवोपरान्त शरीर भार 3 से 4 किलोग्राम तक तथा लम्बाई 50 सेन्टीमीटर, भूख लगने पर चीखना, निद्रा 20 से 22 घंटे तक, चूसने की गतिविधि प्रथम दिन से ही होती है।
शिशु के लिए उसकी माता का ही दूध सर्वोत्तम होता है क्योंकि इस आहार में मिलावट नहीं होती है.। शरीर के तापक्रम पर तथा ताजा उपलब्ध होता है। मातृ-दुग्धपान से बीमारियों से लड़ने की शक्ति तथा विषाणु व पोलियो के निरोधक के रूप में भी होती है।प्रसूत ज्वर, बड़ी माता, यक्ष्मा (T. B.) न्यूमोनिया, मियादी बुखार, हैजा, पान्डु रोग (Anaemia) तथा दिल व गुर्दे की तीव्र बीमारियों और स्तन विद्रधि, स्तन का फटा होना या अन्दर दबा हुआ होने की स्थिति में माता को अपने शिशु को कदापि दुग्धपान नहीं कराना चाहिए। दूध बेस्ट पम्प से निचोड़कर फेंक देना चाहिए ।
यों शिशु को दुग्धपान कराने हेतु कोई निश्चित नियम नहीं है। किन्तु प्रायः 6-6 घंटे पर तथा उसके बाद 5-5 घंटे पर फिर दूसरे, तीसरे दिन 4-4 घंटे पर फिर बाद में 3-3 घंटे पर दुग्धपान कराना उत्तम रहता है। शिशु के उत्पन्न होने पर 1 या 2 मिनट बाद में 2-3 दिन 3-3 मिनट बाद, फिर धीरे-धीरे समय बढ़ाकर 15-20 मिनट किया जा सकता है। वैसे जब भी माँ और बच्चा स्वस्थ हो, स्तनपान करा सकती है। दोनों स्तनों का दूध पिलाना चाहिए। दिन में कम से कम 1 बार स्तनों को साबुन से अवश्य धो लेना चाहिए। फिर पोंछ व सुखाकर प्लास्टिक युक्त अँगिया माता को पहननी चाहिए। भोजन में माँ को दूध के सम्पूर्ण मिश्रित उचित भोजन तथा रसभरी, टमाटर, केला, बन्दगोभी इत्यादि फल एवं तरकारी (कम से मिर्च मसालायुक्त) दें ।
नोट-कभी-कभी माँ के द्वार इसके सेवन से शिशु को पतले दस्त आ जाया करते हैं इसका ध्यान रखें।
माँ को यह मालूम होना चाहिए कि उसका बच्चा कब भूखा है। बच्चे प्रारम्भ के कुछ दिन (3 दिन तक) सोते रहते हैं। जब कुछ वजन घटता है उस समय मां परेशान होती है कि उसका बच्चा दूध नहीं पी रहा है। किन्तु वास्तव में शिशु चौथे दिन से ही दूध पीने की इच्छा प्रकट करते हैं। बच्चे 5 से 20 मिनट में दूध पीकर माँ का स्तन खाली कर देते हैं। दूध पिलाने के बाद शिशु को कन्धे पर सुलावें तथा उसकी पीठ पर हल्के-हल्के हाथों की थपकी लगावें, इस प्रक्रिया से दूध पीने के साथ पेट में गई हवा निकल जाती है दाहिनी करवट से सुलाना चाहिए। एक बार में एक स्तन तथा दूसरी बार में दूसरा स्तन या एक ही बार में दोनों स्तनों का दुग्धपान कराना चाहिए। यदि फिर भी स्तन में दूध रहे तो हाथ से अथवा से दूध को निकाल देना चाहिए ।
शिशु की विकास दर- जन्म के समय वजन 3 किलोग्राम। 6 माह की आयु होने पर 6 किलोग्राम, 9 माह में 9 किलोग्राम एवं 1 वर्ष की आयु होने पर 10 किलोग्राम तथा फिर प्रतिवर्ष 1 से लेकर 2 किलोग्राम के औसत से बढ़ना उत्तम स्वास्थ्य का परिचायक होता है।शिशु की लम्बाई जन्म के समय 50 सेमी., 1 वर्ष की आयु होने पर 75 सेमी. तथा 2 से 14 वर्ष तक लम्बाई का सूत्र (आयु वर्षों में x 2.5 +30 x 2.5 = लम्बाई सेमी.) है।
शिशु के सिर की वृद्धि जन्मकाल में 35 सेमी. 1 वर्ष की आयु में 45 सेमी. हो जाता है। दो वर्ष की आयु होने पर 2 सेमी. 3 वर्ष की आयु होने पर 1 सेमी. और 5 वर्ष की आयु होने पर 5 सेमी. प्रतिवर्ष की वृद्धि होती है।
दन्तोभेद-सर्वप्रथम शिशु के नीचे के बीच के 2 दाँत निकलते हैं। यह 5 माह की आयु में निकलने लगते हैं तथा 9 माह की आयु तक निकल आते हैं। एक वर्ष की आयु में 6 से 8 दाँत तक निकल आते हैं। (कभी-कभी दो ही रह जाते हैं) 6 वर्ष की आयु से नवीन दाँत आते हैं। बच्चे के दूध के दाँत 20 होते हैं जो उखड़-निकलकर युवावस्था में 30-32 हो जाते हैं।
शिशु के अन्य सामान्य लक्षण - शिशु का तलुवा प्रथम 2-3 माह तक बढ़ता है फिर धीरे-धीरे घटता है और 9 माह से 18 माह के दौरान बन्द हो सकता है। पीछे का तलुआ तो 4 माह की आयु में बन्द हो जाता है।
5-6 माह की आयु का बच्चा पकड़कर तथा 7-8 माह का बच्चा बिना किसी सहारे के बैठना सीख जाता है। एक वर्ष का बच्चा हाथ पकड़कर चलता है और 3-4 शब्द भी बोलना सीख जात्ता है। पन्द्रह माह की आयु का बालक खुद बिना सहारे के चलना सीख जाता है और 2 वर्ष का बच्चा दौड़ने लगता है। तीन वर्ष का बच्चा पारिवारिक सदस्यों से बाल-सुलभ प्रश्न पूछने लगता है तथा दरवाजा आदि खोलने व बन्द करने का कार्य भी करने लगता है।
टीके लगवाने की आयु- गर्भावस्था में गर्भिणी को 6, 7 व 8 वें माह
में टिटनेस बैक्सीन या टिटनेस टाक्साइड का टीका लगवा लेना चाहिए। यदि उपयुर्वत टीका न लगवाया हो तो बच्चा पैदा होने पर ए. टी. एस. 1500 का टीका जच्चा को तथा ए. टी. एस. 750 यूनिट का टीका बच्चे को किसी सुयोग्य चिकित्सक से लगवा देना चाहिए ।
(नोट-ए.टी.एस. का टीका चर्म में टैस्ट करने के उपरान्त ही लगवायें)
शिशु को 2 माह की आयु होने पर डिफ्थेरिया (गले में झिल्ली पैदा हो जाना) टेटनस और हूपिंग कफ (काली खाँसी) तीनों रोगों से बचाने वाला वैक्सीन का पहला इन्जेक्शन लगवाना चाहिए ।
(नोट-इस टीका को लगबाने से पूर्व ओरल पोलियो मायटिस वैक्सीन की प्रथम मात्रा
(खुराक) भी पिलाई जाती है ।)जब बच्चे की आयु 3 माह की हो जाए तब उपयुक्त टीका तथा पिलाने वाली वैक्सीन की दूसरी मात्रा और जब बच्चा 4 महीने का हो जाए तो उपर्युक्त बैवसीन का तीसरा टीका तथा पिलाने वाली वैक्सीन की तीसरी खुराक अवश्य पिलवायें ।
जब बच्चा डेढ़ वर्ष की आयु का हो जाए तब उपर्युक्त इन्जेक्शन वैक्सीन अन्तिम बार लगाया जाता है तथा इससे पूर्व अन्तिम बार पोलियो मायलायटिस वैक्सीन की अन्तिम मात्रा मुख द्वारा पिलाई जाती है। इन वैक्सीनों के प्रयोग से बच्चा पोलियो, काली खाँसी, टिटनेस और डिप्थीरिया जैसे घातक रोगों से सुरक्षित हो जाता है और उसको यह रोग बड़ी आयु में भी नहीं हुआ करता है।.
बच्चा जब 1 वर्ष का होता है तब उसको खसरा से सुरक्षित रखने का इन्जेक्शन लगवा देना चाहिए तथा 2 वर्ष की आयु हो जाने पर चेचक से बचाव टीका लगवा दैना चाहिए। यह टीका शिशुओं को 5 वर्ष की आयु तक लगवाया जा सकता है। किन्तु 2 वर्ष की आयु में लगवाना अधिक उचित रहता है। नौ वर्ष की आयु में उसको दुबारा यही इन्जेक्शन लगवादें।
दस वर्ष की आयु के बालक को क्षय रोग से बचाव हेतु बी.सी.जी. का वैक्सीन इन्जेक्शन लगवाना चाहिए ।
आजकल 12 माह की आयु तक रोग प्रतिरक्षक सभी प्रकार के टीके भी राजकीय चिकित्सालयों में मुफ्त लगा दिए जाते हैं तथा विटामिन ए की 9 माह से 3 वर्ष की आयु तक 5 खुराके प्रति 6 माह के अन्तर से पिलाई जाती है।
अच्छे स्वास्थ्य की निरोगी सन्तान अपने देश में जन्म लें, इस हेतु याद रखें कि विवाह की आयु लड़की के लिए कम से कम 18 वर्ष के बाद तथा लड़के की आयु 21 वर्ष के ऊपर होनी चाहिए। इससे कम आयु की लड़की शारीरिक एवं मानसिक रूप से गर्भ धारण के लिए विकसित नहीं रहती है। अतः गर्भ में जटिलताएँ भी उत्पन्न होने की सम्भावनाएं रहती हैं।
प्रसव सदैव प्रशिक्षित व्यक्तियों/दाईयों अथवा राजकीय महिला स्वास्थ्यकर्मी नर्स अथवा सुयोग्य रजिस्टर्ड महिला चिकित्सक द्वारा ही करायें तथा ध्यान रखें कि स्वच्छ हाथ, स्वच्छ प्रसव स्थान, स्वच्छ नया ब्लेड, स्वच्छ नाल बन्धन होना चाहिए । जन्म के 1 घंटे के अन्दर माँ का दूध अवश्य ही पिलायें क्योंकि यह बच्चे के लिए अमृत समान होता है। जन्म के 4 माह तक बच्चे को मात्र माँ का दूध दें, बाहर की अन्य कोई चीज (पानी तक) कदापि न दें।पति-पत्नी में बाँझपन हेतु मात्र महिलाऐं ही नहीं, बल्कि पुरुष भी दोषी हो सकता है। किसी महिला को पुत्र होगा अथवा पुत्री इसके लिए पत्नी नहीं, बल्कि पति ही जिम्मेदार है।
रोगों के उपचार हेतु औषधियाँ बड़ों की, बच्चों की, शिशुओं की, तथा स्वी पुरुषों की एक ही होती है। किन्तु निर्बल, कमजोर रोगियों को, वृद्धों को, स्वियों को खुराक कम दी जाती है। इस ग्रन्थ (पुस्तक) में वयस्क (युवाओं) की खुराकें लिखी गई हैं, जहाँ बच्चों अथवा शिशुओं के योग लिखे हैं, वहाँ उसका उल्लेख कर दिया गया है।
यदि गर्भिणी को गर्भपात की शिकायत हो गई हो तो निम्नलिखित में से किसी एक नुस्खे का प्रयोग करें-
पीपल की छाल का चूर्ण 3 से 6 ग्राम तक शीतल जल के साथ सेवन कराने से गर्भवती की योनि से रक्त आना (गर्भपात) रुक जाता है।
उत्तम लौह भस्म और त्रिफला चूर्ण इन दोनों को आवश्यकतानुसार मिलाकर देने से आशंकित गर्भपात की रक्षा हो जाती है।
स्वर्ण गैरिक (सोना गेरू) तथा राल का चूर्ण मिलाकर सेवन कराने से गर्भपात का रक्तस्त्राव रुक जाता है तथा वेदना का भी निवारण होता है।
सफेद राल का चूर्ण मिश्री मिलाकर पीने से रक्तस्राव रुक जाता है तथा गर्भ पुष्ट भी हो जाता है।
पीपल की छाल और सन्तरे का छिलका समभाग लेकर पीसकर दिन में 3-4 बार (3-4 दिनों तक) पिलाने से गर्भपात में अवश्य लाभ हो जाता है और गर्भ गिरने से बच जाता है। B
बार-बार गर्भस्त्राव के कारण गर्भाशय में कमजोरी आ जाया करती है इसके फलस्वरूप गर्भ धारण की शक्ति प्रायः नष्ट हो जाती है। ऐसी स्थिति में त्रिबंग भस्म 120 मि.ग्रा., मुक्तापिष्टी 120 मि.ग्रा. च्यवनप्राश 12 ग्राम में मिलाकर गोदुग्ध के साथ सेवन कराना अतीव गुणकारी है।
गूलर की जड़ की छाल 12 ग्राम लेकर 250 मि.ली. जल में काढ़ा बनायें। जब जल 30 मि.ली. शेष रहे, तब उतार छानकर गर्भपात की रोगिणी को पिलायें। इससे गर्भपात होना रुक जाता है तथा समय से शिशु जन्म लेता है।
जवासा, सारिवा, पदमाख, रास्ना, मुलहठी, कमल के फूल प्रत्येक 2-2 ग्राम लेकर एक साथ गाय के दूध में पीसकर सुबह-शाम पिलाने से गर्भपात होना निश्चय ही रुक जाता है।गर्भावस्था के तीसरे महीने में शक्कर और नागकेशर 3-3 ग्राम की मात्रा में दूध के साथ पीसकर पिलाने से हारमोन्स की कमी दूर हो जाती है।
आँवले के मुरब्बे का एक नग चाँदी के वर्क में लपेटकर गर्भवती को निरन्तर सेवन करते रहने से गर्भपात नहीं होता है।
पति या पत्नी को सुजाक या उपदंश रोग होने पर गर्भिणी को बार-बार गर्भपात हो जाया करता है अथवा मृत शिशु पैदा होता है। ऐसी स्थिति में उक्त रोगों का समूल नष्ट होना अति आवश्यक है। इस हेतु स्वर्णक्षीरी को जड़ की छाल 12 ग्राम और गोल मिर्च के चार दानें पीसकर रखें और सुबह-शाम खिलायें। इसके सेवन से उपदंश के समस्त विकार दूर हो जाते हैं अथवा उपदंश कुठार वटी (सिद्ध प्रयोग संग्रह) 1 से 4 गोली तक सुबह-शाम ताजा जल से 7 दिनों तक सेवन करें। साथ ही लाजवन्ती की जड़, धाय के फूल, नीलकमल की जड़, मुलहठी और लौध सभी सममात्रा में लेकर चूर्ण तैयार कर लें या क्वाथ (काढ़ा) बनाकर 1 औस की मात्रा में 250 मि.ली. गो दुग्धं के साथ सुबह-शाम 15 दिनों तक सेवन कररायें । इससे गर्भपात नहीं होता है।
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