माता की व्याधि का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव

माता की व्याधि का गर्भस्थ शिशु पर प्रभाव



लम्बे समय तक अथवा तीव्र रूप में होने वाली किसी भी व्याधि के फलस्वरूप गर्भपात या गर्भस्त्राव (एर्वोशन) या मृत सन्तान (Still Birth) का अपरिपक्व प्रसव हो सकता है।

भ्रूण विकास के प्रथम 3-4 मास के गर्भ के दौरान यदि छोटी माता, हरपीज या मलेरिया का रोग गर्भिणी को हो जाए तो गर्भपात, अपरिपक्व प्रसव, गलसुआ के कारण दिल की व्याधि, पोलियो के कारण जन्म से ही पक्षाघात, खसरे के साथ ही बच्चे का पैदा होना एवं Vibriofetus से मस्तिष्क ज्वर हो जाता है।

गर्भिणी यदि मधुमेह की रोगिणी हो तो जन्म लेने वाले शिशु का वजन अधिक होता है, सिर बड़ा होता है (Hydrocephalas) और Hypertrophy एवं Hyperplasia of I selet call का होना, Phenyl Ketonuria के कारण जन्मजात अंग-विकृति होती है ।

गर्भिणी द्वारा अंग्रेजी औषधि कारटीजोन्स के योग खाने से शिशु के होंठ कटे होना (Cleft Palate)कैफीन के योग खाने से गर्भस्त्राव, मृत सन्तान या अपरिपक्व प्रसव होना।

. एमफेटामीन के योग खाने से हृदय शिशु में विकृति आ जाती है।

एसीडरेक्स के कारण शिशु में रक्त विकृति हो जाती है।

गर्भिणी द्वारा धूम्रपान करने से जन्में शिशु का वजन कम हो जाता है।

एल. एस. डी. के सेवन से शिशु की अस्थियों में विकृति हो जाती है।

कुनैन के सेवन के फलस्वरूप रक्त-विकृति हो जाती है।

स्ट्रप्टोमायसिन के प्रयोग के फलस्वरूप शिशु बहरा हो जाता है।

टेट्रासाइक्लिन का गर्भिणी द्वारा प्रयोग करने के फलस्वरूप शिशु की हड्डियों का विकास प्रभावित होता है, दाँतों पर रंग होना तथा मोतियाबिन्द की शिकायत हो सकती है।

थैलीडामाइड के प्रयोग से शिशु के अंग जन्मजात विकृत होते हैं।

नारकोटिक, वार्बोचुरेट तथा ट्रन्कुलाइजर का यदि गर्भिणी सेवन करे तो केन्द्रित नाड़ी तन्त्र पर अवसादक प्रभाव पड़ता है और शिशु सांस नहीं लेने के कारण मर जाता है।

सर्पगन्धा (Reserpin) के कारण शिशु पर प्रभाव स्वरूप प्रभावों में निद्रालुता, नाक में भारीपन हो जाता है।

अफीम के कारण शिशु का कम दूध पीना, वमन, दस्त, सांस फूलना, शरीर का नीला पड़ना तथा प्राइमाक्वीन के कारण रक्त विकृति का रोग शिशु को हो जाता है।

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