जलने का घाव, दग्ध-व्रण (Burnsand Sealds)jalne ke ghav ka ilaaj
जलने का घाव, दग्ध-व्रण (Burnsand Sealds)jalne ke ghav ka ilaaj
रोग परिचय-आग या उबलते हुए विविध तरल पदार्थ अथवा पिघले धातु-रांगा, लोहा, जस्ता, तांबा, पीतल इत्यादि की गरम वाष्प द्वारा शरीर का भीतरी त्वचा कुछ भाग जल जाता है। विद्युत-धारा एवं प्राकृतिक विद्युत (बिजली से भी जल जाते हैं। जलने की कई स्थिति हुआ करती हैं। किसी में ऊपरी त्वचा, किसी में, किसी में मांस, चर्बी तथा किसी में हड्डी तन्त्रिकाएँ, धमनियें, शिरायें इत्यादि जल जाती हैं। हल्का जलने पर फफोले निकल आते हैं। गहरा जलने पर त्वचा सम्पूर्ण रूप से जल जाती हैं इसके साथ ही मांस, चर्बी, तन्त्रिकायें आदि भी जल जाने से कारण तीव्र दाह, भयंकर पीड़ा होती है। जले घावों से टीस उठतीहै, प्यास अधिक लगती है, भयंकर वेदना के साथ रोगी को बेचैनी रहती है जिसके कारण उसे करवट तक बदलने में कठिनाई व कष्ट हुआ करता है। बादर, वरख आदि जले हुए व्रण से चिपक जाते हैं। जिसे छुड़ाने पर तड़पाने वाली रोगी को पीड़ा होती है।
उपचार
• तिल का तैल और 'चूना जल' प्रत्येक 6 मि.ली. को एकत्र कर उसमें ओला (बरसात में गिरने वाला बर्फ के पत्थर के छोटे या बड़े टुकड़े) का जल 15 मि.ली. भी मिलाकर खूब घोटकर सुरक्षित रखें। इसे दग्ध व्रणों पर नरमी से दिन में 2-4 बार लगायें ।
• आलू को पीसकर नरमी के साथ दग्ध व्रणों पर लगाना गुणकारी है।
• फफोलों को विसंक्रमित केंची से काट दें तथा दग्ध के साधारण एवं गम्भीर व्रणों पर जात्यादि तैल (शारंगधर संहिता) को चिड़िया के पंख से दिन में 2-4 बार लगाये तथा महामंजिष्ठादि क्वाथ 15 मि.ली. दिन में 2 बार पिलायें ।
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