धनुर्वात, धनुष्टंकार (Tetanus),टेटैनस
(धनुर्वात, धनुष्टंकार (Tetanus),टेटैनस)
रोग परिचय-इस रोग को धनुस्तम्भ, धनुर्वात, धनुष्टंकार, धनुपतानक,
हनुस्तम्भ तथा आंग्ल भाषा में टेटैनस के नाम से भी जाना जाता है। इस रोग का प्रधान कारण शलाकार कीटाणु होते हैं। जिसे आंग्ल भाषा में 'वैसिलस टिटेनैस' कहते हैं। इन कीटाणुओं का निवास स्थान गौ, अश्व इत्यादि पशुओं की अन्तडियां हैं। ये कीटाणु पशुओं की अंन्तडियों में रहते हुए भी उन्हें कुछ हानि नहीं पहुँचाते उनके मल द्वारा बाहर निकलते हैं। इसलिए ये अश्व-शालाओं (जहाँ पर लीद पड़ी रहती है) में विशेष रूप से होते हैं। मार्ग या खेत इत्यादि में भी जहाँ लीद पड़ी हो, वहाँ पर किसी मनुष्य को चोट लग जावे और उसमें किसी प्रकार से लीद में संसर्ग हो जावे तो उस क्षत में कीटाणु प्रविष्ट होकर रोग उत्पन्न कर देते हैं। इन कीटाणुओं की वृद्धि होने में 1 से 20 दिन तक का समय लग जाता है। नवजात शिशु को जंग लगे शस्व से नाल को काटने से भी यह रोग हो जाता है। ग्रामीण अंचलों में इसे 'जमोगा' रोग के नाम से भी पुकारते हैं।
यह एक संक्रामक रोग है। जो कीटाणुओं के प्रकोप से शरीर को धनुष की भाँति टेढ़ा कर देता है। इसीलिए इस रोग को इससे मिलते जुलते नामों से जाना जाता है। सर्वप्रथम कड़ापन और हनुस्तम्भ के समान लक्षण ज्ञात होते हैं, फिर धीरे-धीरे माँस पेशियों में कड़ापन आ जाता है। जिसके कारण रोगी दुग्धपान अथवा भोजन आदि करने में असमर्थ हो जाता है। हनु में अत्यधिक कड़ापन होने से रोगी के जबड़ों का खुलना असम्भव हो जाता है। यह संकोच हनु (ठोड़ी) की मांसपेशियों में प्रारम्भ होकर मुख मण्डल की समस्त पेशियों में व्याप्त हो जाता है। जिससे भौहें ऊपर को तन जाती है और मुख बाहर की ओर खिचा हुआ प्रतीत होता है। पीठ कमान की भाँति हो जाती है। सारा शरीर बक हो जाता है। यदि पेट की माँस पेशियों पर इसका प्रभाव होता है तो शरीर आगे की ओर झुक जाता है। ज्वर बहुत कम होता है। इस रोग में ज्वर का विशेष होना मृत्यु का परिचायक माना जाता है।
यदि लक्षण हल्का है और चिकित्सा उसी समय आरम्भ कर दी जाये तो रोग साध्य होता है। क्षत के बाद शरीर में स्तम्भ होने पर असाध्य समझनाचाहिए। यदि रोगी 4 दिनों तक जीवित रह जाये तो कभी-कभी स्वस्थ भी हो जाता है।
उपचार
• वृहंदवात चिन्तामणिरस 2 रत्ती की गोलियों को द्राक्षासव 1 तोला अदरख के रस के साथ 3-3 घन्टे पर देना सर्वोत्तम औषधि है।
• कस्तूरी, केसर, अहिफेन, (अफीम) जायफल समभाग लेकर 2-2 रत्ती की मात्रा में अदरक के स्वरस के साथ देने से लाभ होता है।
• दशमूल क्वाथ पिलाने और सरसों का तेल मलने से धनु-स्तम्भ में लाभ होता है।
• प्रसारिणी तेल (डाबर, वैद्यनाथ, धन्वन्तरि, गुरुकुल कांगड़ी, आदि अनेक निर्माता) का व्यवहार धनुर्वात में अत्यन्त उपकारी है। इसको मालिश के अतिरिक्त दूध के साथ सेवन भी करना चाहिए ।
• सज्जी का तेल मलने और दसमूल का क्वाथ पिलाने से तथा उसी काढ़े की नस्य देने से धनुस्तम्भ में अवश्य आराम हो जाता है।
• पान के भीतर 2 रत्ती अफीम रखकर खाने से इस रोग में अवश्य आराम हो जाता है।
• इस रोग के आपेक्षों में महाबला तेल का व्यवहार अत्यन्त लाभकारी है। इसे अनेक आयुर्वेदिक निर्माता तैयार करते हैं।
• महामास तेल (निरामिष) डाबर, वैद्यनाथ, गुरुकुल कांगड़ी, धन्वन्तरि आदि अनेक निर्माता) की मालिश से भी पक्षाघात, हनुस्तम्भ इत्यादि कठिन रोगों में लाभ हुआ करता है।
प्रमुख पेटेन्ट आयुर्वेदीय योगों में इस रोगापचार हेतु अनेक निर्माताओं ने सूचीवेध तैयार किये हैं। जिनका इस ग्रन्थ में घरेलू उपचार लेख न होने के कारण विस्तृत विवेचन न कर मात्र संकेत दिया जा रहा है।
कुकुर भाँगरा सूचीवेध (बुन्देल खण्ड) कल्पसोमा (प्रताप) दूर्वाश्वेत (बुन्देल खण्ड) चन्द्रोदय (मिश्रा बुन्देलखण्ड) बातौन (सिद्धि फार्मेसी) ललितपुर (उन्नाव) उ.प्र.) शूलान्तक (मिश्रा) लहसुन सूचीवेध मिश्रा व बुन्देलखण्ड (रसोन (प्रताप फार्मेसी, लक्ष्मी आ० अ० भवन) बातविदार (जी.ए. मिश्रा झांसी उ. प्र.) कुचला (आदर्श व बुन्देलखण्ड व सिद्धि) इत्यादि सूचीवेधों में से किसी एक सूचीवेध का 1-2 सी.सी. (मिलीमीटर) की मात्रा में मांसान्तर्गत अथवा रोग व आयु की अवस्थानुसार व आवश्यकतानुसार प्रयोग करने से अवश्य लाभ प्राप्त होता है। किन्तु यह कार्य रजिस्टर्ड चिकित्सकों का ही है। घरेलू उपचार के अन्तर्गत यह उपचार दण्डनीय है।
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