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मधुमेह (Diabetes)सुगर

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              (मधुमेह (Diabetes)सुगर  रोग परिचय-इस रोग की आजकल बहुतायत हो गई है। इस रोग में शर्करा (Sugar) बिना किसी रासायनिक परिवर्तन के मूत्र के साथ बाहर निकलती रहती है। इस रोग में शक्कर पच नहीं पाती है तथा रोगी को मूत्र अधिक आता है। बार-बार मूत्र त्याग के कारण प्यास भी अधिक लगती है, मुख सूखता रहता है, रोगी कमजोर व कृषकाय हो जाता है। उपचार • जामुन की गुठली का चूर्ण सौंठ, 50-50 ग्राम तथा गुड़मार बूटी 100 ग्राम लें। सभी को कूटपीसकर कपड़छन कर लें। फिर ग्वारपाठे के रस में घोटकर झड़बेर (जंगली बेर) के समान गोलियाँ बना लें। ये 1-1 गोली दिन में 3 बार शहद के साथ प्रयोग करायें। एक माह तक प्रयोग जारी रखें । मोटः- इस योग के प्रारम्भ करने से पूर्व 3 दिन का उपवास करें। इस रोग में शक्कर अथवा शक्कर से बनी मिठाइयों, पकवान व पेय निषेध है। रोगी कम खाये। हरी साग-सब्जियों का प्रयोग अधिक करें। अल्प मात्रा में फल ले सकते हैं। दिन में सोयें, स्वच्छ पानी में तैरनालाभप्रद है, कम बोलें, ब्यायाम (शारीरिक शक्तिनुसार) अवश्य करें, यदि कर सकें तो नित्य 30 ग्रा...

वायुगोला, योषापस्मार (Hysteria)हिस्टीरिया और मिर्गी के दोरों का अन्तर)

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(वायुगोला, योषापस्मार (Hysteria)हिस्टीरिया और मिर्गी के दोरों का अन्तर) रोग परिचय-यह स्वयं में कोई स्वतंत्र रोग नहीं है। बल्कि यह शरीर में जड़ जमाये हुए अनेक दूसरे रोगों का एक लक्षण मात्र है। यह मृगी रोग भी नहीं है। किन्तु फिर भी मृगी (अपस्मार) की ही भाँति इसके दौरे पड़ा करते हैं। यह रोग प्रायः स्वियों को ही हुआ करता है, वैसे पुरुष भी इस रोग के शिकार हो सकते हैं। स्वियों को यह रोग गर्भाशय की किसी विकृति के कारण हुआ करता है। यौन विकृति भी इस रोग का कारण हो सकती है। अन्य कारणों में प्रदर विकार, बिलासी जीवन, अत्यधिक काम-वासना, पुरानी कब्ज, अधिक आयु तक विवाह का न होना, चिन्ता, असफलता, भय, क्रोध, अजीर्ण, पेट, फूलना, अश्लील उपन्यास कहानियाँ पढ़ना या चलचित्र देखना भी है। वास्तव में यह एक नर्वस रोग है, जो नर्वस सिस्टम (स्नायु संस्थान) के दोषों से होता है। यह प्रायः 12 से 50 वर्ष आयु की स्वियों को हुआ करता है। इस रोग में स्त्री का गला घुटता प्रतीत होता है और ऐसा आभास होता है कि गोला उदर से उठकर गले में फँस गया हो इसके बाद स्वो को दौरा पड़ जाता है। हाथ पैर ऐंठने लग जाते हैं और स्वी ब...

सफेद दाग,शरीर पर सफ़ेद घबे(Leucoderma)

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    (सफेद दाग,शरीर पर सफ़ेद घबे(Leucoderma) रोग. परिचय-इस रोग को फुल बहरी, श्वेत कुष्ठ, श्वित्र इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। शरीर के विभिन्न भागों चेहरा, होंठ, टाँग, हाथों पर पहले छोटे-छोटे सफेद दाग पड़ जाते हैं फिर धीरे-धीरे वे फैल जाते हैं। यह छूत (संक्रामक) का रोग नहीं होता है। इस रोग से ग्रस्त रोगी की औलाद इस रोग से ग्रसित नहीं होती है। इस सचाई से अनभिज्ञ लोग रोगी से घृणा करने लगते हैं। उपचार- सफेद दागों वाले चर्म (खाल) को चुटकी से ऊपर उठाकर (माँस से प्रथक करके) उसमें सुई चुभोकर देखें। यदि उसमें रक्त निकल आये तब चिकित्सायोग्य समझें और यदि पानी जैसा तरल निकले तो "असाध्य" समझें यदि दाग छोटे और कम हो तो वह चिकित्सा से शर्तिया ठीक हो जाते हैं • बाबची के बीज 200 ग्राम, हरताल 48 ग्राम, मैनसिल व चीता का जड़ 6-6 ग्राम लें। इन्हें गौमूत्र में पीसकर सफेद दागों पर दिन में 3 बार लेप करें। • ब्राह्मी पंचाग, लहसुन, सेंन्धानमक और चीता की जड़ प्रत्येक 12-12 ग्राम लें। इनको गौमूत्र के साथ पीसकर सफेद दागों पर लेप करें।re • अपामार्ग भस्म 12 ग्राम तथा मैनसिल 12 ग्राम मिलाकर ज...

सूखा रोग(MARASMUS)सुखन्डी,सूखिया मसान,बालशोष,अस्थिक्षीणता,अस्थिदुर्बलता

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(सूखा रोग (MARASMUS)सुखन्डी, सूखिया मसान, बालशोष, अस्थिक्षीणता, अस्थिदुर्बलता, कैल्सियम की कमी अथवा रिकेट्स) रोग परिचय- इस रोग से ग्रसित हो जाने पर बच्चा धीरे-धीरे सूखता चला जाता है। खाया पीया अंग नहीं लगता है। इस रोग को सुखन्डी, सूखिया मसान, बालशोष, अस्थिक्षीणता, अस्थिदुर्बलता, कैल्सियम की कमी अथवा रिकेट्स इत्यादि नामों से भी जाना जाता है। यह रोग आँतों की क्षय से होता है। इसके अतिरिक्त माँ बाप के गुप्त रोग,तीव्र ज्वर, आँतों के कीड़े इत्यादि के कारण भी सूखा रोग हो जाता है। सूखा रोग से ग्रस्त बच्चे का चेहरा डरावना हो जाता है। उसकी आँखें भैंस कर निस्तेज हो जाती है। उसको बदबूदार हरे पीले दस्त आने लगते हैं। शरीर पर झुर्रियाँ सी दिखाई देती हैं। बच्चा अस्वस्थ, सुस्त, बेजान रहता है, उसको गहरी नींद नहीं आती है तथा खाया-पीया ठीक से नहीं पचता है। कान की लौर (Earlobe) जिसमें छिद्र करवाकर स्त्रियां बालियों पहनती है, को दबाने पर यदि बच्चा नहीं रोये, तो निश्चत समझलें कि बच्चा सूखा रोग से ग्रस्त हो चुका है। सूखा-ग्रस्त बच्चे के शरीर की स्वभाविक गर्मी नहीं होती बल्कि उसके शरीर का तापमान गि...

कर्णरोग (Ear disease),कान के रोग,कान का दर्द

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(कर्णरोग (Ear disease),कान के रोग,कान का दर्द) उपचार • आक के सुपक्व पीले पत्तों पर घृत चुपड़कर आग पर रख दें। जब वे झुलसने लगें, तभी झटपट उठाकर निचोड़ लें और इस रस को थोड़ा गरम करके कानों में डालें । तुरन्त ही तीव्र वेदनायुक्त कर्णशूल नष्ट हो जायेगा । • कपास के बोन्डा को कूट पीसकर तिल या सरसों के तेल में पकाकर तेल सिद्ध करें, तत्पश्चात छानकर सुरक्षित रख लें। इस तेल की 4-5 बूँदें दिन में 2 बार कान में डालते रहने से कर्णपूय (कानभेपीव) कर्णखाव (कान बहना) दोनों रोगों में में अवश्य लाभ हो जाता है। • अफीम 1 ग्राम, मुसब्बर 6 ग्राम, मसूर की दाल 10 ग्राम सभी को एकत्र कर धतूरे के रस में कुछ गरम करके कान के चारों ओर लेप करने से कर्णमूल- शोथ में लाभ होता है। • अहिफेनासव और गिलेसरीन समभाग एकत्र मिलाकर 5-5 बूँदें कान में टपकाने या अफीम और सज्जी खार को शराब में मिलाकर कुछ बूँदें कान में डालने से तथा रात्रि के समय सेक कर ऊपर गरम कपड़ा लपेट कर (शीतल जल तथा शीतल वायु न लगने पाये) सो जाने से शीघ्र ही कर्णशूल (कान दर्द) नष्ट हो जाता है।• अनार के ताजे पत्तों को कुचलकर निकाला हुआ रस 100 ग्राम, गौ...

(त्वचा विकार,चमड़ी के रोग,खुजली,दाद,कृष्ठ रोग,)

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(त्वचा विकार,चमड़ी के रोग,खुजली,दाद,कृष्ठ रोग,) रोग परिचय-परिचय की विशेष आवश्यकता नहीं, क्योंकि इन विकारों से प्रायः सभी परिचित हैं। खुजली दो प्रकार की होती है- सूखी खुजली तथा तर खुजली । सूखी खुजली-खुजली के रोगी का कपड़ा पहनने या उसके साथ रहने से 'सार कौटिप्स स्केबी' नामक कीटाणु स्वस्थ मनुष्य के बाहरी चर्म में छेद कर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इन कीटाणुओं के विष से रक्त के श्वेत एवं लाल रक्त-कणों के नष्ट हो जाने से न पकने वाली छोटी-छोटी फुन्सियाँ निकलती हैं तथा चर्म में प्रदाह होकर उस स्थान का रंग खराब हो जाता है। सूखी खुजली प्रारम्भ में विशेषतः हाथ-पैर, मलद्वार, अन्डकोषों तथा योनि पर होती है जो बार बार खुजलाने से शरीर के अन्य स्थानों पर भी हो जाती है। उस रोग के होने का एक कारण रोगी का गन्दा रहना भी है। तर खुजली-खुजली को उत्पन्न करने वाले कीटाणु प्रायः कोमल त्वचा में रहते हैं। अँगुलियों के बीच वाले भाग, कलाई, जाँघ और बगल में फुन्सियाँ निकल आती हैं, जिनमें से तरल निकलता है। यही आर्द्र या तर खुजली कहलाती है। खुजलाने से यह तरल शरीर में जहाँ कहीं भी लग जाता है, उस स्था...

कण्ठमाला या अपची,गले के रोग, (Scrofula, Lymphadenitis

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         (कण्ठमाला या अपची,गले के रोग, (Scrofula, Lymphadenitis) रोग परिचय-गले की ग्रन्थियाँ बड़ी होती है और पक जाती हैं तथा फटने पर महीनों बहती रहती हैं। एक ठीक होने पर दूसरी हो जाती है। प्रायः एक साथ अनेक ग्रन्थियाँ बढ़ी हुई हुआ करती हैं।(उपचार) • कचनार की छाल 40 ग्राम को जौकुट कर कलईदार वर्तन में 40 ग्राम जल में पकायें। जब 50 ग्राम. जल शेष रहे तो उतार कर सुखोष्ण ही छानलें। उसमें 3 से 5 ग्राम सौठ का चूर्ण तथा 10 ग्राम मधु मिलाकर प्रतिदिन 1 बार 40 दिनों तक पिलाने से गन्डमाला में पूर्ण लाभ होता है। • चोबचीनी का चूर्ण 4 से 10 ग्राम तक नित्य 2 बार शहद के साथ चटाने से कन्ठमाला में पूर्ण लाभ होता है। • काली जीरी के साथ धतूरे के बीज तथा अफीम घोट पीसकर जल में गरम कर गाढा-गाढ़ा लेप करने से पीड़ा शान्त हो कर गाँठें बैठ जाती है। • नीम की छाल के साथ नीम के पत्तों को मिलाकर जौकुट कर क्वाथ बनाकर पिलाने से गंडमाला में लाभ होता है। • बबूल की छाया शुष्क अन्तर छाल के महीन चूर्ण को कन्ठमाला के घाव पर बुरकने से लाभ होता है। • बाकला को जौ के आटे और फिटकरी के साथ पीसकर ...

स्त्रियों का उपदंश (सिफलिस)

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(स्त्रियों का उपदंश (सिफलिस) रोग परिचय-स्खियों को इस रोग में भग के ओष्ठों पर घाव बन जाता है, जो 3-4 सप्ताह तक रहता है। यह भी सुजाक की ही भाँति एक संक्रामक रोग है। इस रोग के दो प्रकार होते हैं- 1. हार्डशेन्कर 2. साफ्टसेंकर । इसका कारण भी एक विशेष प्रकार का कीटाणु है। यदि यह रोग माता-पिता के कारण वंशानुगत क्रम से संतान को हो जाये तो इसको 'प्राइमरी सिफलिस' कहते हैं तथा यह रोग स्वी से पुरुष को या पुरुष से स्वी को सम्भोग द्वारा हो जाय तो उसको 'सेकेन्ड्री सिफलिस' कहते हैं। यदि माता पिता दोनों या किसी एक को यह रोग हो तो अनेक वीर्य द्वारा गर्भस्थ बच्चे को यह रोग हो जाता है। माता पिता के रक्त से इस रोग के' कीटाणु आँवल द्वारा भ्रूण (बच्चे) में चले जाते हैं। यदि यह रोग पति या पत्नी को हो तो सम्भोग द्वारा एक से दूसरे को लग जाता है। ऐसी परिस्थिति में घाव सबसे पहले स्त्री या पुरुष जननेन्द्रिय पर होता है। यदि बच्चे को पैत्रिक उपदंश हो तो दूध पिलाने स्त्री को भी यह रोग अपनी चपेट में ले लेता है। उपदंश के रोगी से बहुत अधिक मिलने-जुलने, उसको चूमने-चाटने, उसके कपड़े पहनने, ...

उष्णवात, सूजाक (Gonorrhoea)

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       (उष्णवात, सूजाक (Gonorrhoea) रोग परिचय-यह एक औपसर्गिक (Venereal) रोग है, जो गोनोकोक्स (Gonococus) नामक बैक्टीरिया (कीटाणु) द्वारा उत्पन्न होता है। यह कीटाणु काफी के बीज के सदृश अथवा मनुष्य के वृक्क के आकार के अत्यन्त ही छोटे- छोटे होते है जो नंगी आँखों से दिखलाई नहीं पड़ते है। इन्हें अनुवीक्ष्ण यन्त्र से सरलता से देखा जा सकता है। यह रोग सूजाक से ग्रसित स्वी (विशेष कर वेश्या) के साथ संभोग करने से हो जाता है। सम्भोग के तीसरे-पांचवे दिन (किसी-किसी रोगी को 2-3 सप्ताह के बाद) इस रोग के लक्षण प्रकट होते हैं। मूत्र का छेद लाल होकर सूज जाता है। मूत्र जलन और दर्द के साथ आता है। उसके 3-4 दिनों के बाद रोगी के कष्ट बढ़ जाते हैं। मूत्र रुक जाता है अथवा जलन व दर्द के साथ मूत्र रक्त-मिश्रित आता है रोगी के लिंग में असहनीय दर्द होता है यहाँ तक कि लिंग में जरा-सा कपड़ा छू जाने पर भी रोगी तड़प उठता है। जाँघों के जोड़ की ग्रन्थियाँ सूज जाती है तथा ज्वर भी हो जाता है। रोग के प्रारम्भ में मामूली सी खराश और खुजली मूत्र के छेद में होती है और पूय (पीप) सी निकलती है फिर धीर...

उपदंश आतशाक (Syphilis)

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           (उपदंश आतशाक (Syphilis) रोग परिचय-इसे अंग्रेजी में 'सिफलिस' के नाम से जाना जाता है। यह दुष्टा (दुश्चरित्रा) स्त्री से सम्भोग करने से एक-दूसरे को होता है। पहले लिंग पर एक हल्के रंग का पीड़ा रहित घाव होता है। वह 3 सप्ताह में ठीक हो जाता है। फिर डेढ़-दो महीनों के बाद त्वचा पर बड़े-बड़े भूरे रंग के उद्‌भेद निकल आते हैं। यह रोग वंशानुगत (माता-पिता से) भी उनकी सन्तानों में पहुँच जाता है। यह एक महा भयंकर संक्रामक रोग है, जो एक रोगी से दूसरे को हो जाता है। जब किसी स्त्री या पुरुष को इसका संक्रमण लग जाता है तब उसके द्वारा किसी स्वस्थ स्वी या पुरुष के साथ यौन सम्बन्ध (संभोग, मैथुन) करने से उसे भी हो जाता है। उचित चिकित्सा व्यवस्था से यह रोग पूर्णरूपेण निर्मूल (नष्ट) हो जाता है। अतः यह रोग पूर्णतः साध्य है, असाध्य नहीं है।তু उपचार • नीम की पत्तियों का 10 ग्राम रस प्रतिदिन पिलायें तथा नीम के बीजों का तैल यौनांगों पर मालिश करें। नीम का तैल कृमि और दूषित गर्मी का संहार करता है। नीम का तैल 5 ग्राम की मात्रा में पीना भी अतीव गुणकारी है। अथवा नीम को कोमल शाखाओं क...