उष्णवात, सूजाक (Gonorrhoea)
(उष्णवात, सूजाक (Gonorrhoea)
रोग परिचय-यह एक औपसर्गिक (Venereal) रोग है, जो गोनोकोक्स (Gonococus) नामक बैक्टीरिया (कीटाणु) द्वारा उत्पन्न होता है। यह कीटाणु काफी के बीज के सदृश अथवा मनुष्य के वृक्क के आकार के अत्यन्त ही छोटे- छोटे होते है जो नंगी आँखों से दिखलाई नहीं पड़ते है। इन्हें अनुवीक्ष्ण यन्त्र से सरलता से देखा जा सकता है।
यह रोग सूजाक से ग्रसित स्वी (विशेष कर वेश्या) के साथ संभोग करने से हो जाता है। सम्भोग के तीसरे-पांचवे दिन (किसी-किसी रोगी को 2-3 सप्ताह के बाद) इस रोग के लक्षण प्रकट होते हैं। मूत्र का छेद लाल होकर सूज जाता है। मूत्र जलन और दर्द के साथ आता है। उसके 3-4 दिनों के बाद रोगी के कष्ट बढ़ जाते हैं। मूत्र रुक जाता है अथवा जलन व दर्द के साथ मूत्र रक्त-मिश्रित आता है रोगी के लिंग में असहनीय दर्द होता है यहाँ तक कि लिंग में जरा-सा कपड़ा छू जाने पर भी रोगी तड़प उठता है। जाँघों के जोड़ की ग्रन्थियाँ सूज जाती है तथा ज्वर भी हो जाता है। रोग के प्रारम्भ में मामूली सी खराश और खुजली मूत्र के छेद में होती है और पूय (पीप) सी निकलती है फिर धीरे-धीरे मूत्र मार्ग सूज जाता है तथा पूय की अधिकता के कारण मूत्र धुएँ के समान धुंधला सा आता है। रात्रि के समय रोगी का लिंग खड़ा हो जाने पर उसको तड़पा देने वाला दर्द होता है। दर्द के कारण लिंग 1 ओर या नीचे को मुड़ जाता है (बहुत से रोगियों में किसी प्रकार का कष्टं नहीं होता है। रोगी यही समझता रहता है कि पूय आदि किसी दूसरे कारण से आ रही है और इसी कारण लापरवाही में वह अपना रोग बढ़ा लेता है।
सूजाक 3-4 सप्ताह के बाद, अपना संक्रमण (इन्फैक्शन) फैलाकर मूत्र मार्ग के अन्त तक चला जाता है। बाद में यह संक्रमण शुक्र प्रणालियों व ग्रन्थियों, पौरुष ग्रन्थि तथा वीर्य उछालने वाली नलियों में भी पहुँच जाता है। इसके बाद सुजाक के कीटाणुओं का संक्रमण रक्त में मिलकर सम्पूर्ण शरीर को रोगग्रस्त करने लगता है। उचित चिकित्सा के अभाव में यह रोग वर्षों तक बना रहता है। सुजाक से ग्रसित रोगी जब किसी भी स्वी से संभोग करता है तो उसको भी सुजाक हो जाता है। रोगी पुरुष गर्भ ठहराने में असमर्थ हो जाता है।
इस रोग के उपद्रव-स्वरूप जोड़ों का सूज व पथरा जाना, रक्त मिला मूत्रआना, अण्डों का सूज जाना आदि भयानक रोग हो जाते हैं। रोग पुराना हो जाने पर पुराना सुजाक (ग्लीट) कहलाता है जो वर्षों तक रोगी को पीड़ित करता है। मूत्रमार्ग में घाव व रेशे उत्पन्न होकर मूत्र मार्ग अन्दर से सिकुड़कर बन्द हो जाता है। जिसके कारण मूत्र अत्यन्त ही कठिनाई से आता है। सम्भोग करने पर मूत्रमार्ग रुक जाने के कारण वीर्य मूत्राशय में चला जाता है। मूत्रमार्ग सिकुड़ जाने को (स्ट्रिक्यर) कहते हैं।
इस रोग का पूर्ण प्रभाव मूत्र व रक्त की परीक्षा (जाँच) करने और उसमें सुजाक के कीटाणु होने पर ही मिलता है। क्योंकि कई बार स्त्री की योनि तंग होने या खुश्क होने अथवा योनि में सूजन होने और श्वेत प्रदर (ल्यूकोरिया) की रोगिणी स्वी से सम्भोग करने पर पुरुष के मूत्र मार्ग में सूजन हो जाने से भी यह सब लक्षण उत्पन्न हो जाते हैं और पूय आने लगती है। इस रोग को 'मूत्र मार्ग शोध' कहते हैं।
सुजाक के कीटाणु शिश्न (लिंग) के छिद्र में होकर मूत्रमार्ग में प्रविष्ट हो जाते हैं और वहां अपनी संख्या में निरन्तर वृद्धि करते हुए मूत्रपथ की भीतरी दीवार को काटकर खाने लगते हैं। जिससे पूय का निर्माण होने लगता है।
यह रोग स्वी तथा पुरुष दोनों को हो सकता है। किन्तु यह रोग किसी पशु को नहीं होता है। स्वी को यह रोग प्रायः उसके चरित्रहीन पति द्वारा मिलता है। पुरुषों को यह रोग दुश्चरित्रा स्त्री या वेश्या के साथ सम्भोग करने से होता है। इसके अतिरिक्त कई बार बेजाईनल स्पेक्यूलम या अन्य दूसरे यन्त्र जो चिकित्सक द्वारा किसी सुजाक वाली स्त्री को प्रयोग किये जाते हैं। उनको लापरवाही वश संक्रमण रहित न कर किसी स्वस्थ स्वी को यन्त्र प्रयोग करा दिये जायें तब भी यह रोग हो जाता है।
इस रोग में स्वी की योनि में एक विशेष प्रकार की गाँठ हो जाती है। जो बढ़कर भग के ओष्ठों, मूत्र के छेद क्लारोरिस तक और भीतर की ओर फैलोपियन प्रणालियों और डिम्बाशय तक पहुँच जाती है। जब तक यह रोग स्वी के गुप्त अंगों के बाहरी भागों में बहता है। तब तक उसे केवल मूत्र करने में कष्ट और कठिनाई होती है और योनि में स्राव के साथ हल्के नीले रंग की पीव आने लगती है। किन्तु जब यह रोग बहुत बढ़ जाता है और गर्भाशय में चला जाता है तो पीड़ा बहुत बढ़ जाती है। रोगिणी को हर समय जलन और बेचैनी रहती है। ज्वर भी हो जाता है तथा पीव भी अधिक आने लगता है। पेडू पर तीव्र जलन होतीहै। वहाँ की स्नायु में कठोरता आ जाती है। जाँघों के जोड़ों की ग्रन्थियां सूज जाती है। कई बार बारथोलिन ग्लैज के सूज जाने से भगद्वार का छेद बिल्कुल ही बन्द हो जाता है। जिसके कारण रखाव और पीव का आना रुक जाता है।
कभी-कभी यह रोग बढ़कर स्वी के वृक्कों तथा मूत्राशय तक को प्रभावित कर देता है। रोग प्रारम्भ होते ही उचित चिकित्सा व्यवस्था से यह रोग 15-20 दिनों में समूल नष्ट हो जाता है अन्यथा पुराना (क्रोनिक) हो जाता है। उस अवस्था में तमाम कष्ट कम हो जाते हैं। केवल मूत्र करने में जलन होती है। कभी-कभी सफेद स्राव जिसमें गाढ़ी पीव मिली होती है जो मूत्र के छेद और भग द्वार से आती रहती है। प्रदर मासिक धर्म जलन के साथ आता है। पीड़ित स्थान पर कुछ दूषित तन्तु उत्पन्न हो जाते हैं। यह अवस्था बहुत कष्टदायक होती है। योनि की श्लैष्मिक- कला ढीली और गुलाबी रंग की हो जाती है।
रोग पुराना हो जाने पर- गर्भाशयस्राव से इस रोग का सन्देह (भ्रम) हो
सकता है। ऐसी परिस्थिति में दोनों रोगों का अन्तर इन लक्षणों से स्पष्ट हो सकता है। यदि स्वी के मूत्र मार्ग के छेद को अँगुली से दवाया जाय तो सुजाक का रोग होने पर सफेद गाढ़ा तरल निकलता है, जबकि गर्भाशय स्त्राव का रोग होने पर अंगुली से दबाने पर किसी भी प्रकार का स्राव नहीं निकलता है। इस रोग से ग्रसित स्वी के मूत्र में संक्रमण और विषैलै प्रभाव (यूरेनियां) दिल की भीतरी झिल्ली में शोध, आँखें आ जाना, जोड़ों में दर्द होना, गर्भाशय-शोथ और घाव, बाँझपन स्वी के बच्चे बार-बार मर जाना अथवा मृत (मरे हुए) बच्चे उत्पन्न होना, गर्भपात, मूत्राशय में शोथ, गुदा में शोथ, मूत्र में रक्त आना आदि लक्षण हो सकते हैं।
उपचार
• स्त्री या पुरुष दोनों में से किसी एक को यदि सुजाक का रोग हो तो पुरुष निरोध (फैन्च लैदर) नामक रबड़ का कन्डोम शिश्न पर चढ़ाकर पूर्ण सावधानी पूर्वक सम्भोग क्रिया सम्पन्न करें इस प्रयोग से इस "छूत" की बीमारी से से भी बचेंगें तथा वीर्य स्खलन (रुकावट) का समय भी बढ़ जायेगा ।
• अलसी 20 ग्राम रात्रि को आधा किलो पानी में भिगो दें तथा प्रातःकाल में उसका लुआब उठाकर छान लें। तदुपरान्त उसमें कच्ची खाँड़ मिलाकर पीने से स्वप्नदोष के समय वीर्य की रुकावट से होने वाले सुजाक में लाभ होता है।
• छाया-शुष्क आम के पत्तों का चूर्ण सुबह शाम 6-6 ग्राम पिलाने से सुजाक में लाभ होता है अथवा आम की ताजा अन्तरछाल का रस 40 ग्राम तथा चूनेका निथरा हुआ जल 10 ग्राम लें। दोनों को एकत्र कर 6 दिन तक पिलाने में पूयमेह में विशेष लाभ होता है तथा मूत्र के समय की वेदना कम हो जाती है।
• कबाबचीनी का चूर्ण 1 ग्राम तथा फिटकरी का चूर्ण 2 रत्ती मिलाकर जल के साथ दिन में 3 बार देने से सुजाक में लाभ होता है।
कबाबचीनी का मोटा चूर्ण 4 ग्राम तक को 125 ग्राम उबलते पानी में मिलाकर ढक्कन से ढक दें। उसे 15-20 मिनट बाद छानकर ठन्डा करें। फिर उसमें 5 बूंद चन्दन का तेल मिलाकर रोगी को दिन में 2 बार पिलाने से. मूत्र साफ आने लगता है और पूयमेह (सुजाक) की वेदना शान्त हो जाती है।
• गिलोय 50 ग्राम को पीसकर 250 ग्राम पानी में छान लें। तदुप्रान्त उसमें कलमी शोरा, यवक्षार, शीतलचीनी, प्रत्येक 6-6 ग्राम तथा शक्कर 50 ग्राम मिलाकर पुनः छान लें। इसे 4 घन्टे पर प्रतिदिन 4-5 बार दें। इस प्रयोग से 3-4 सप्ताह में सुजाक के समस्त कष्ट दूर हो जाते हैं।
• चन्दन का तेल 5 से 15 बूँद तक दिन में 3 बार 4-5 बताशों पर डालकर दूध के साथ देने से सुजाक में विशेष लाभ होता है। यदि जलन अधिक हो तो 5-10 बूंद की मात्रा प्रत्येक घण्टे पर दें। पूय स्वाव के बन्द हो जाने पर भी 14- 15 दिनों तक निरन्तर देते रहने से इस रोग का पुनः आक्रमण नहीं होता ।
• शुद्ध बैरोजा 25 ग्राम, छोटी इलायची 10 ग्राम और मिश्री 60 ग्राम लें। सभी के महीन चूर्ण का मिश्रण 6 ग्राम की मात्रा में दूध या लस्सी के साथ अथवा शीतल जल से सुबह शाम सेवन करने से सुजाक एवं तज्जन्य कष्टों का शीघ्र निवारण हो जाता है।
•• बबूल का गोंद साफ जल में घोलकर पतला पानी जैसा बना लें। इससे पिचकारी करने से मूत्र की जलन तथा पीव में लाभ होता है।
• बरगद की 20 ग्राम कोपलों या कोमल पत्तों को कुचलकर रात्रि के समय 40 ग्राम पानी में भिगोवें तथा प्रातः काल मल छानकर उसमें मिश्री मिलाकर पिलाने से पेशाब की जलन तथा पूय आना शीघ्र बन्द हो जाता है।
• वंशलोचन, शीतलचीनी, नागकेशर तथा छोटी इलायची के बीज सभी सममात्रा में लेकर चूर्ण बनाकर सुरक्षित रख लें। इसे डेढ़ से तीन ग्राम की मात्रा में 6 बूँद चन्दन का तेल मिलाकर सुबह-शाम 3 दिन तक देने से मूत्र-वेदना दूर होकर सुजाक में लाभ होता है।
• बादाम की गिरी 6 नग छिलका रहित तथा असली श्वेत चन्दन का बुरादा3 ग्राम लें। दोनों को महीन पीसकर मिश्री मिलाकर दिन में 3 बार जल से सेवन कराने से कष्टसाध्य पूयमेह में लाभ होता है।
भाँग की ठन्डाई पिलाने से मूव विरेचन होकर पूय निकल जाता है तथा मूत्र त्याग के समय की दाह भी शान्त हो जाती है। भांग की पिचकारी से प्रक्षालन (धुलाई) करने से भी सुजाक में विशेष लाभ होता है।
• मूली की 4 फाँक कर उन पर भुनी फिटकरी का चूर्ण 6 ग्राम बुरककर रात्रि में ओस में रख दें। प्रातः काल वह फाँकं खाकर ऊपर से जो पानी निकलता है। उसे पी लेने से सुजाक में लाभ होता है।
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• काली मूसली के 6 ग्राम चूर्ण को उबलते हुए दूध में थोड़ा-थोड़ा डालकर मिला लें। फिर मिश्री मिलाकर रोगी को पिलाने से सुजाक में लाभ होता है।
• मूसली तथा शक्कर 6-6 ग्राम तथा चन्दन का तेल 3-5 बूँद तक डालकर दूध की लस्सी 3 दिन तक सेवन करने से सुजाकजनित तीव्र वेदना सहित मूत्रकृच्छ में लाभ होता है।
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• रेवन्द चीनी, कलमी शोरा (प्रत्येक 7 माम) यवक्षार 6 ग्राम, सफेद जीरा 10 ग्राम, खान्ड, 120 ग्राम सभी का चूर्ण कर लें। इसे 6 ग्राम की मात्रा में गाय के दूध की लस्सी से सेवन करें। सुजाक में लाभ होता है।
• माजूफल 10-10 रत्ती की मात्रा में दूध की लस्सी के साथ प्रातःकाल प्रति 1-1 घन्टे पर 3 बार सेवन करने से मूत्र-नलिका पर ग्राही प्रभाव पड़कर पूयस्राव कम हो जाता है।
नोटः-बिना कष्ट के जब अतिशय पूथचाब हो रहा हो, तब इस योग का व्यवहार करना चाहिए।
• भुनी फिटकरी और सोना गेरू 10-10 ग्राम तथा मिश्री 40 ग्राम सभी को पीसकर चूर्ण बनालें । इसे 6 ग्राम की मात्रा में गाय के दूध के साथ सेवन करने से सुजाक में लाभ होता है।
• गेरू 60 ग्राम, शीतलचीनी 60 ग्राम, कपूर 6 रत्ती सभी को कूट पीसकर महीन चूर्ण बनाकर (छलनी या चलनी से छान ले) इसे 3 ग्राम की मात्रा में दिन 2-2 घन्टे के अन्तर पर 1-1 मात्रा देने से सुजाक में लाभ होता है।
• हल्दी तथा आँवला सम मात्रा में लेकर पीस छान लें तथा बराबर मात्रा में मिश्री मिला लें। इसमें से 10 ग्राम चूर्ण खाकर शीतल जल पीने से सुजाक में शीघ्र लाभ होता है।
• असली चन्दन का तेल और बैरोजा का तेल 10-10 बूँद बताशे मेंडालकर दें। ऊपर से गाय का ठण्डा दूध पिलाने से 2-4 दिन में ही सुजाक में लाभ होता है।
• बड़ का दूध प्रातःकाल बताशे में खाने से 1 सप्ताह में ही सुजाक का रोग मिट जाता है।
• तूतिया 3 ग्राम फिटकरी 6 ग्राम इसको आधा किलो पानी में औटावें। आधा जल शेष रहने पर उतार लें। इसकी पिचकारी लगाने से सुजाक के व्रण भरने लगते हैं।
• सफेद कत्था 20 अफीम 10 ग्राम, मेहन्दी के पत्ते 25 ग्राम और रसौत 10 ग्राम सभी को रात्रि के समय पानी में भिगोदें। प्रातःकाल छानकर उसकी पिचकारी से प्रक्षालन करने से सुजाक में लाभ होता है।
सुजाक नाशक प्रमुख पेटेन्ट आयुर्वेदीय योग
उष्ण वातहर कैपसूल (गर्ग बनौषधि) 1-1 कैपसूल दिन में 3 बार उष्ण वात में अत्यन्त प्रभावशाली योग है। पुराने से पुरााना सुजाक इसके निरन्तर सेवन से ठीक हो जाता है।
यष्टी मधु चूर्ण (झन्डू) 1 से 4 ग्राम तक दिन में 3बार । लाभ उपयुक्त।
सरिवा लिक्वड़ (झन्डू) दिन में 3 बार लाभ उपर्युक्त । इसका सीरप भी आता है। इसे 2 से 4 मिली दिन में 3 बार दें।
बेनो मिक्श्चर (झन्डु) मात्रा 4 सेट मिली. दिन में 3 बार ।
सार्सा परिल्ला आयोडाइड (झन्डू) 1-2 चम्मच दिन में 2-3 बार दें।
आयोबीन टिकिया और ब्रह्मडाइन टिकिया (डिशेन) 1-1 टिकिया दिन में 2 बार लगातार 2-3 माह तक तथा इसी कम्पनी की अल्बोसांग टिकिया कमजोरी दूर करने हेतु 2-2 टिकिया दिन में 2 बार भोजनोपरान्त दें एवं जलन के साथ एक-एक कर कर पेशाब आने पर इसी कम्पनी की प्रत्येक 4-4 घन्टे पर 1-1 टिकिया तथा तीव्रावस्था में दो-दो टिकिया प्रयोग करायें ।
समय-समय पर पेशाब की जाँच भी करायें। क्योंकि मवाद रुक जाने से ही चिकित्सा पूर्ण नहीं हो जाती है। स्त्री रोगी को दिन में कम से कम 2 बार किसी भी कीटाणु नाशक औषधि से डूसिंग करना अति आवश्यक होता है। भोजन हल्का दें तथा मद्यपान निषेध कर दें।
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