स्त्रियों का उपदंश (सिफलिस)
(स्त्रियों का उपदंश (सिफलिस)
रोग परिचय-स्खियों को इस रोग में भग के ओष्ठों पर घाव बन जाता है, जो 3-4 सप्ताह तक रहता है। यह भी सुजाक की ही भाँति एक संक्रामक रोग है। इस रोग के दो प्रकार होते हैं- 1. हार्डशेन्कर 2. साफ्टसेंकर । इसका कारण भी एक विशेष प्रकार का कीटाणु है। यदि यह रोग माता-पिता के कारण वंशानुगत क्रम से संतान को हो जाये तो इसको 'प्राइमरी सिफलिस' कहते हैं तथा यह रोग स्वी से पुरुष को या पुरुष से स्वी को सम्भोग द्वारा हो जाय तो उसको 'सेकेन्ड्री सिफलिस' कहते हैं। यदि माता पिता दोनों या किसी एक को यह रोग हो तो अनेक वीर्य द्वारा गर्भस्थ बच्चे को यह रोग हो जाता है। माता पिता के रक्त से इस रोग के' कीटाणु आँवल द्वारा भ्रूण (बच्चे) में चले जाते हैं।
यदि यह रोग पति या पत्नी को हो तो सम्भोग द्वारा एक से दूसरे को लग जाता है। ऐसी परिस्थिति में घाव सबसे पहले स्त्री या पुरुष जननेन्द्रिय पर होता है। यदि बच्चे को पैत्रिक उपदंश हो तो दूध पिलाने स्त्री को भी यह रोग अपनी चपेट में ले लेता है।
उपदंश के रोगी से बहुत अधिक मिलने-जुलने, उसको चूमने-चाटने, उसके कपड़े पहनने, उसके बिस्तर पर लेटने तथा कई बार डाक्टरी यन्त्रों (जिन्हें किसी उपदंश रोगी पर प्रयोग किया जा चुका हो और यन्त्रों को भली प्रकार संक्रमण रहित न किया गया हो) को स्वी की जननेन्द्रिय में प्रवेश कर देने से यह रोग हो जाता है। उपदंश के रोगी का खून या पीव यदि किसी स्वस्थ मनुष्य के शरीर में चला जाये तो उसको भी यह रोग हो जाता है।
1. साफ्ट शेंकर-जब उपदंश का संक्रमण पीड़ित स्थान की श्लैष्मिक कला पर प्रभावी होता है तो वह स्थान छिल जाता है तथा 24 घन्टे के अन्दर वहाँ लाली हो जाती है। दूसरे या तीसरे दिन वहाँ फुन्सी निकल आती हैं। जिनकी नोंक काली होती है और उसके चारों ओर लाली के साथ नीलापन दिखलाई पड़ता है और अक्सर पाँचवे दिन फुन्सी फट जाती है। उसमें से कुछ तरल सा निकलकर गहरा घाव बन जाता है। जिसमें सख्त दर्द होता है तथा बहुत अधिक मात्रा में पीव निकलता है। इस घाव का रंग मटियाला और इसके किनारे साफ एवं जड़ कुछ कठोर होती है। प्रायः जाँघों की ग्रन्थियां सूजकर पक जाती है। अक्सर यह घाव भग के ओष्ठों और योनि की श्लैष्मिक कला में होते हैं और कभी-कभी गर्भाशयके मुँह तक हो जाते हैं। इसका समय 3 सप्ताह से 2 मास तक का होता है। इस रोग का संक्रमण रक्त में प्रवेश नहीं करता है। इसलिए इसे स्थानीय संक्रमण कहा जाता है।हमार
2. हार्ड शेन्कर- जिस समय इस प्रकार के उपदंश की छूत मनुष्य के शरीर में प्रवेश करती है तो तुरन्त ही इसके लक्षण प्रकट नहीं होते है बल्कि यह संक्रमण अन्दर ही अन्दर अपना विष फैलाता है तथा 10 से 60 दिनों के अन्दर लक्षण प्रकट होने लग जाते हैं। हार्ड शेन्कर उपदंश को लक्षणों के आधार पर 3 श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है।
(अ) इसमें प्रायः भग के ओष्ठों या योनि के बाहरी भाग में एक लाल रंग का सख्त उभार उत्पन्न होकर फुन्सी का रूप ग्रहण करती है, जो कुछ ही दिनों में फूट जाती है और इसके नारों ओर एक घेरा उत्पन्न हो जाता है। इस घाव से कभी-कभी पतला स्राव और पीव निकलती रहती है और कई बार यह घाव बिल्कुल खुश्क भी हो जाता है। यह घाव अधिक गहरा नहीं होता है और न इसमें अधिक दर्द ही होता है। अक्सर यह घाव 6 माह के अन्दर स्वयं ही ठीक हो जाता है। परन्तु यह दुबारा भी निकल आता है।
(ब) प्रथम श्रेणी के समाप्त होने के लगभग डेढ़ था दो माह के बाद रोगिणी स्वयं को स्वस्थ अनुभव करती है, किन्तु उपदंश अन्दर ही अन्दर अपने पैर मजबूती से जमाकर फैलता चला जाता है। फलस्वरूप रोगिणी के रक्त और शरीर के प्रत्येक तन्तु में फैल जाता है। जिसके कारण रक्तविकार के लक्षण दृष्टिगोचर होने लगते हैं। शरीर के विभिन्न स्थानों (अंगों) पर फुन्सियों और दाने निकल आते हैं। जिनमें बारीक-बारीक छिलके उतरने लगते हैं। अक्सर बड़े-बड़े छाले निकला करते हैं। जिनमें पीव या पानी भरा रहता है। कभी-कभी चर्म पर छोटी-छोटी गाँठें भी हो जाया करती हैं। इस प्रकार इस अवस्था में रोगिणी दिन प्रतिदिन कमजोर होती चली जाती है। उसे अनिन्द्रा हो जाती है। भूख भी कम लगती है। बेचैनी, गले की टांन्सिल सूज जाना और बाद में पककर घाव बन जाना तथा उन घावों का रंग मटियाला होना और किनारे उभरे हुए होना इत्यादि लक्षण दिखलाई पड़ते हैं। इन लक्षणों के अतिरिक्त शरीर के दूसरे अंगों की ग्रन्थियाँ भी सूज जाती हैं। आँखों की भवों के बाल तथा सिर के बाल झड़ने लग जाते हैं। आँखों की पुतलियाँ भी धुंधली हो जाती हैं और आँखों के अन्य भाग सूज जाते हैं। (परन्तु यह आवश्यक भी नहीं है कि उपरोक्त समस्त लक्षण प्रत्येक रोंगी स्वी में पाये जायें) यह अवस्था रोगिणी में कुछ सप्ताहों से लेकर दो वर्ष तक रह सकती है।(स) जब उक्त दूसरी, श्रेणी समाप्त हो जाती है, उसके कुछ माह अथवा कई वर्ष बाद तीसरी, श्रेणी आरम्भ हो जाती है। इस खाली काल में अक्सर स्वी की जीभ तथा उसके हाथों में कुछ जलन सी महसूस हुआ करती है। इस तीसरी श्रेणी की अवस्था में शरीर में शोथ आने लगती है और चर्म की रक्त-वाहिनियाँ फट जाती है। फलस्वरूप शरीर के विभिन्न अंगों और स्थानों पर घाव हो जाते हैं। सम्पूर्ण शरीर में हर समय हल्का-हल्का दर्द होता रहता है। लम्बी हड्डियाँ मध्य में जुड़ जाती हैं और उनके सिरे मोटे हो जाते हैं, तालु में छेद हो जाते हैं। नाक बैठ जाती है, आवाज साफ नहीं निकलती है और इन परिस्थितियों से जूझती हुई रोगिणी अन्त में विभिन्न भयानक रोगों यथा पक्षाघात, सन्यास (ऐपोलैक्सी) इत्यादि रोगों से ग्रसित होकर असमय ही काल के गाल में समा जाती है।
उपचार-उपदंश के अन्तर्गत पिछले पृष्ठों में दिया जा चुका है वहीं देखें।
जो लोग वैश्यागामी हैं उन्हें चाहिए कि वह केलोमल को 3-4 गुनी वैसलीन में मिला कर सम्भोग के तुरन्त पश्चात् शिश्न पर मल लें तथा दो घन्टे बाद गरम पानी तथा साबुन से धो डालें। इस उपाय से इस रोग के कीटाणु नष्ट हो जाते हैं और इसका खतरा समाप्त हो जाता है। इस रोग से ग्रस्त रोगी अथवा रोगिणी को काफी लम्बे समय तक रक्त शोधक औषधियों का प्रयोग करते रहना अति आवश्यक है। जब तक रक्त बिल्कुल ही उपदंश के कीटाणुओं से रहित न हो जाये, रक्त शोधक औषधियों का सेवन करना न छोड़ें ।
आयुर्वेद में शास्त्रीय तथा रक्त शोधक औषधियों का असीम भन्डार है। पेटेन्ट औषधियाँ तो उस ग्रन्थ में कई स्थान पर मिल जायेंगी। शास्त्रीय योगों में- मंजिष्ठादि क्वाथ, खदिरारिष्ट, सारवाद्यारिष्ट, उपदंश कुठार रस इत्यादि विशेष लाभप्रद है। पोटाशियम परमेगनेट एक भाग को दस हजार भाग पानी में मिलाकर (घोलकर) रोगिणी योनि में डूश (सफाई) करती रहे तथा पोटाशियम परमेगनेट के ही हल्के लोशन में गद्दी भिगोकर योनि पर अथवा अन्दर रक्खें ताकि संक्रमण का प्रभाव फैलने से रुक जाय। फिटकरी अथवा नीम की पत्तियों का गरम पानी में ठण्डा करके प्रयोग करना भी इसी श्रेणी में (ऐन्टी सैप्टिक) में आता है और इसी प्रकार बाजार में उपलब्ध डेटोल अथवा सेविलान इत्यादि का प्रयोग भी हितकर है।पीसकर खसखस के क्वाथ में खरल करके खुश्क कर लें तथा सुरक्षित रख लें। इसे आधा से 2 रत्ती तक की मात्रा में दिन में 3 बार खिलाते रहने से उपदंश तथा इससे उत्पन्न समस्त विकार कष्ट हो जाते हैं।
• फिटकरी सफेद 10 तोला, मकोय के हरे पत्ते 10 तोला लें। दोनों को पीसकर गोला सा बनाकर उसके मध्य में एक तोला संखिया रखकर दो प्यालों में बन्द करके यथाविधि 5 सेर उपलों की आग लगादें। प्याले ठन्डे हो जाने पर संखिया-भस्म और फिटकरी अलग-अलग करलें। संखिया-भस्म 2 से 4 चावल की मात्रा में खाली कैपसूल में भरकर खिलायें। यह औषधि उपदंश में अत्या ही लाभप्रद है। यदि इस रोग से रोगी के तालु में घाव भी हो गये हों तथा रोगा की हालत बहुत ही खराब हो गई हो तब भी उसको आराम जा जाता है।
• शुद्ध पारा, शुद्ध गन्धक 1-1 तोला लें। दोनों को 3-4 घन्टे तक खूब खरल करके पारा की चमक नष्ट करके कज्जली बनालें, तब इसमें शुद्ध जमालघोटा 2 तोला मिलाकर 6 घन्टे तक खरल करें। तदुपरान्त इसमें 1 तोला खपरिया मिलाकर पुनः 6 घन्टे तक खरल करते रहें। फिर मिट्टी के नये प्यालों में दवा को डालकर खरल को पानी में धोकर इस पानी को भी दवा में ही मिला दें, (पानी इतना हो कि दवा से 2 उँगली ऊँचाई रहे), फिर उसको आग पर उतनी देर तक रखें कि काफी पानी खुश्क हो जाये। दवा थोड़ी सी गाढ़ी रहे। इसको 2 रत्ती की मात्रा में कैपसूल में डालकर निगलकर दूध की कच्ची लस्सी पीयें। यह रोग उपदंश की दूसरी तथा तीसरी श्रेणी के लिए अमृत-तुल्य है। इसके उपयोग से उपदंश का विष दस्तों और कै (वमन) के द्वारा तमाम शरीर से निकल जाता है।
नोट-नाजुक स्वभाव तथा कमजोर रोगियों को यह योग प्रयोग न करायें ।
• नीम की छाल, कचनार की छाल, इन्द्रायण की जड़, बबूल की फलियां, कंटकारी की जड़, फल और पत्ते, पुराना गुड़ (प्रत्येक 5 तोला) लेकर उन्हें 8 गुने पानी में उबाल लें। इसकी 7 मात्रायें बना लें। प्रतिदिन प्रातःकाल 1 मात्रा पिलायें तथा औषधि प्रयोग-काल में मूंग की दाल की खिचड़ी खाने को दें। यह उपदंश के 'विष को शरीर से निकाल देती है।
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