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योनि की खुजली (Pruritis Vulvae)Vaginal itching,yoni ki khujli ka ilaj

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(योनि की खुजली (Pruritis Vulvae)Vaginal itching,yoni ki khujli ka ilaj) रोग परिचय-भगकन्डू का रोग प्रायः गर्भकाल में खियों को होता है। इसके अतिरिक्त स्त्रियों में उपदंश, विचर्चिका आदि रोगों के संक्रमण, काटने वालेतेज प्रदर के लगने, बच्चादानी एवं योनि से अनियमित रूप से तरल बहकर लगने तथा वी के गुप्तांगों में सफाई न रखने इत्यादि के कारण योनि के बाहर की त्वचा पर छोटी-छोटी फुन्सियाँ उत्पन्न हो जाती है- जिनमें सख्त खुजली होती है। योनि को बार-बार खुजलाने से त्वचा छिल जाती है जिसमें तीव्र खुजली, जलन, दर्द और कष्ट होता है। उपचार • सतपिपरमेन्ट 2 ग्राम को बादाम रोगन 12 मि.ली. में मिलाकर रोगाक्रान्त स्थान पर लगाना अत्यन्त लाभप्रद है। • यशद भस्म 1 ग्राम को 100 बार धुले हुए 12 ग्राम घी में मिलाकर योनि कन्डू में दिन में 2 बार लगाना गुणकारी है। • कपूर 4 ग्राम, सुहागा भस्म 2 ग्राम और नारियल का बढ़िया तैल 30 मि.ली. को एकत्र कर भली प्रकार मिलाकर इसे योनि की खुजली में 2-3 बार लगाते रहने से अत्यन्त लाभ होता है। • पंवार के बीज, बावची, सरसों, तिल, कूट, दोनों हल्दी और नागरमोथा सभी को सममात्रा में ले...

गुदा की खुजली (Pruritis ani)goods ki khujli,chamdi ki khujli

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(गुदा की खुजली (Pruritis ani)goods ki khujli,chamdi ki khujli) रोग परिचय-गुदा को अच्छी तरह न धोने या कन्डू (खुजली) के कीटाणुओं का गुदा की त्वचा में संक्रमण हो जाने से यह रोग हो जाता है। इस रोग में गुदा की बाहरी त्वचा में सख्त खुजली हुआ करती है। बारीक और सख्त फुन्सियाँ निकल आती है जिसके फलस्वरूप त्वचा खुरदरी हो जाती है। उपचार • नीम का तैल, चाल मोगरा का तेल समभाग लेकर मिला लें। इसमें थोड़ा सा कपूर मिलाकर दिन में 2-4 बार लगाना उपयोगी है। सरसों का तैल 60 मि.ली., नीम का तैल 12 मि.ली. तथा इतना ही चालमोगरा और बादाम का तैल और तारपीन का तैल 1 मि.ली. तथा कपूर 4 ग्राम मिलाकर रोगाक्रान्त स्थल पर लगाना गुणकारी है। • 60 मि.ली. सरसों के तैल में यशद भस्म, सुहागा भस्म और गन्धक 4-4 ग्राम की मात्रा में लें- पकाकर खुजली के स्थान पर मलें । • शुद्ध आमलासार गन्धक 1 भाग, काला जीरा 1 भाग, स्वर्ण गैरू 1 भाग सभी का बारीक चूर्ण कर कपड़छन करके सरसों के तैल में मिलाकर कन्डू स्थान पर दिन में 2 बार मालिश करना उपयोगी है। नीम के पत्तों का रस 500 मि.ग्राम, गाय का घी 125 ग्राम, रस कपूर 12 ग्राम तथा असली मोम 2...

सूखी खुजली (Pruritis)sukhi khujli,elerji wali khujli

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सूखी खुजली (Pruritis)sukhi khujli,elerji wali khujli रोग परिचय-इस अंग्रेजी शब्द में कई प्रकार की खुजली सम्मिलित है। जैसे-भिड़, बिच्छू, मधुमक्खी अथवा अन्य दूसरे विषैले कीड़ों के डंक से उत्पन्न होने वाली खुजली और शोथ, एलर्जी से पैदा होने वाली पित्ती आदि का कष्ट, बुढ़ापे में माला की भंति लाल दानें (Herpjr zoster) निकल आना-जिसमें खुजली तथा जलन होती है, पुरानी वृक्कशोथ से पैदा खुजली, यकृत दोष या पान्डु रोग के कारण उत्पन्न होने वाली खुजली, मधुमेह (मूत्र में शक्कर आना) से उत्पन्न फोड़े-फुन्सी, सख्त गर्मी और धूप में चलने से गर्मी के दाने, (पित्त) एवं रक्त विकारों से उत्पन्न खुजली, स्वी की योनि, गुदा और पुरुषों के अन्डकोषों के पास उत्पन्न होने वाली खुजली इत्यादि । यह रोग जीर्ण रोग भोगने के बाद जीवनी-शक्ति क्षीण हो जाने पर, मैला-कुवैला, गन्दा रहने पर, गरिष्ठ भोजनों से अथवा अधिक सदीं या गर्मी के कारण हो जाता है। इसमें छोटे-छोटे शुष्क दाने निकलते हैं-जिनमें सख्त खुजली व जलन होती है, चर्म शोधयुक्त तथा लाल वर्ण का हो जाता है, जलन और खुजली के कारण नींद कम आती है। उपचार-सर्वप्रथम रोगी जुला...

तर खुजली (Maist Scabies)tar khujli,choti chhoti foonsiyan wali khujli

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(तर खुजली (Maist Scabies)tar khujli,choti chhoti foonsiyan wali khujli)  रोग परिचय-खुजली को उत्पन्न करने वाले कीटाणु प्रायः कोमल त्वचा में रहते हैं। इनके संक्रमण से अँगुलियों के बीच वाले भाग, कलाई, जाँघ और बगल इत्यादि में छोटी-छोटी फुन्सियाँ निकल आती हैं, जिनसे तरल निकलता रहताहै और इनको खुजलाने से यह तरल जहाँ कहीं भी लग जाता है उस स्थान पर यह रोग हो जाता है। यह तीव्र संक्रामक चर्म रोग है। उपचार- सर्वप्रथम विरेचन देकर पेट साफ करें। • सारिवाद्यासव, सारिवादि क्वाथ, मरिच्यादि तेल का प्रयोग लाभप्रद है। • चाल मोंगरा का तैल, नीम का तेल 60-60 मि.ली., भिलावे का तैल 1 मि. ली. मिलाकर खुजली पर दिन में 1 बार लगाया करें। लाभप्रद है। • आमलासार गन्धक वैसलीन में मिलाकर लगाना भी गुणकारी है। • मेंहदी के सूखे पत्ते आधा किलो एवं शुद्ध गन्धक 125 ग्राम लें। दोनों को पीसकर कपड़े से छानकर सुरक्षित रखें। इसे 1-1 ग्राम की मात्रा में ठण्डे जल से दिन में 3 बार लें। खुजली, रक्त एवं चर्म दृष्टि नाशक है।

शुष्क खुजली (Dry Scabies)sukhi khujli,khuski

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(शुष्क खुजली (Dry Scabies)sukhi khujli,khuski) रोग परिचय-खुजली के रोगी का कपड़ा पहनने या उसके साथ रहने, लेटने, सोने से सारकौटिप्स स्केबी नामक कीटाणु स्वस्थ मनुष्य के बाहरी चर्म में छेदकर शरीर में प्रवेश कर जाते हैं। इनके विष से रक्त के श्वेत एवं लाल कणों के नष्ट हो जाने के कारण न पकने वाली छोटी-छोटी सूखी फुन्सियाँ निकल आती है तथा चर्म में प्रदाह हो जाता है आक्रान्त त्वचा का रंग खराब हो जाता है। उसमें तीव्र खुजली होती है। यह विशेषकर हाथ-पैर, कक्ष, मलद्वार, अन्डकोषों और योनि पर होती है। बार-बार खुजलाने से शरीर के अन्य भागों पर भी खुजली हो जाती है। यह रोग गन्दा रहने से भी हो जाता है। उपचार-खुजली वाले रोगी को सर्वप्रथम विरेचन देकर पेट साफ करायें। • नीम की कोपलें, चिरायता, कुटकी और सनाय प्रत्येक 12 ग्राम लेकर पीसलें और 250 ग्राम जल में रात्रि को भिगोकर रखें। प्रातः काल छान कर सेवन करने से 1-2 सप्ताह में ही सूखी खुजली जड़ से नष्ट हो जाती है। नीला तूतिया, पारा, गोल मिर्च (प्रत्येक 1-1 ग्राम), बन्दूक का बारूद 3 ग्राम, घी 13 ग्राम को घोटकर लेप बनाकर खुजली के स्थान पर मलें। फिर 4 घंट...

बालों की जड़ों की पुरानी शोथ,Barbers Itch, DeLekee Sycosis Barbee,balon mein khuski,balon mein sikari,dandraff

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(बालों की जड़ों की पुरानी शोथ,Barbers Itch, DeLekee Sycosis Barbee,balon mein khuski,balon mein sikari,dandraff) रोग परिचय-इसे अंग्रेजी में (Barbers Itch, DeLekee Sycosis Barbee) के नाम से जाना जाता है। यह भी एक हठीला रोग है जो काफी लम्बे समय तक परेशान करता है। यह प्रायः दाढ़ी और सिर के बालों की जड़ों में हुआ करता है। इस रोग में त्वचा के रोम कूपों में पुरानी सूजन होती है जिसके कारण पीपयुक्त, पीली फुन्सियों उत्पन हो जाती हैं। पीप निकलकर और सूखकरखुरन्ड बन जाते हैं। इस रोग के कारण बाल कमजोर होकर झड़ने लग जाते हैं तथा इसकी छूत एक से दूसरे व्यक्ति को भी लग जाती है। यह रोग स्टेफिलीकोक्कस नामक कीटाणु के संक्रमण से उत्पन्न होता है। उपचार • 101 बार का धुला हुआ भी 250 ग्राम, सफेदा और कपूर 12-12 ग्राम, उत्तम (बढ़िया) सिन्दूर 6 ग्राम और चन्दन का तैल 18 ग्राम लें। सभी औषधियों को घी में रगड़कर मरहम बनाकर रोगाक्रान्त चर्म पर मलें। यह समस्त प्रकार के चर्म रोगों का नाराक बाह्य प्रयोगार्थ योग है। • शुद्ध आँवलासार गन्धक 12 ग्राम, चिरायता 24 ग्राम, सौंफ चूर्ण 24 ग्राम, नीम का तैल 6 मि.ली. सभी ...

चकत्ते, रक्त चर्म,erythema,garmi loo dhool se hone wale chamdi rog

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(चकत्ते, रक्त चर्म,erythema,garmi loo dhool se hone wale chamdi rog) रोग परिचय-इसे अंग्रेजी में एरीथीमा के नाम से जाना जाता है। कई प्रकार के ज्वर, शोथ, जलन उत्पन्न करने वाले कई रोग, कब्ज, वायु के तेज झकि, गर्मी, लू, धूल आदि के कारण त्वचा शुष्क और लाल वर्ण की हो जाती है तथा उस पर बहुत से लाल धब्बे पड़ जाते हैं। यह एक विशेष प्रकार का चर्म रोग है जिससे त्वचा पर शोथयुक्त लाल चकत्ते एवं चटाख निकल आते हैं। इन चकत्तों में खुजली, जलन और पीड़ा नहीं होती है। इस रोग में आमवात रोग की भाँति सन्धि-स्थलों में दर्द, थकावट और ज्वर कुछ दिनों तक रहता है तथा कभी-कभी दर्द भी होने लगता है। कभी-कभी इनसे छिलके या भूसी सी उतरने लगती है और कभी ज्वर और बेचैनी हो जाती है। चकत्ते अधिक उभरकर छाले बन जाते हैं जिनमें (सीरम) दूषित रक्त या पीप भर जाती है। इस रोग के भी कई प्रकार हैं- लाल रंग के गोल उभरे हुए चकत्ते जिसमें चर्म में रक्त की अधिकता हो जाती है, अँगुलियों पर अत्यधिक लाली फैलती चली जाती है, चकत्ते टांगों और बाजू पर होते हैं, चर्म में शोथ होकर चकत्तों का उभर आना, पेट में वायु दोष से अथवा विषैले प्रभ...

बिवाई फटना (Chil Blains)thand se hath pair ki ungliyon mein soojan,thand se hath pair mein ghav jakham hona

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(बिवाई फटना (Chil Blains)thand se hath pair ki ungliyon mein soojan,thand se hath pair mein ghav jakham hona) रोग परिचय - इस रोग को अंग्रेजी में हैन्डस या चैप्स ऑफ एक्सट्रेमिटीज आदि नामों से भी जाना जाता है। शीत ऋतु में सख्त सर्दी के कारण प्रायः हाथ- पाँव की चर्म फट जाती है और उसमें तीव्र वेदना होती है। कई बार तो चर्म इतनी अधिक फट जाती है कि बड़े-बड़े और गहरे चीरे पड़ जाते हैं। अत्यधिक शीत, सर्दी और बर्फ के प्रभाव से शरीर की त्वचागत रक्त-वाहिनियों में संकोच उत्पन्न हो जाता है जिसके फलस्वरूप रक्त की भीषण कमी हो जाती है और त्वचा सुत्र हो जाती है। इसका विशेष प्रभाव नाक तथा अँगुलियों पर पड़ता है। शीत (सर्दी) या बर्फ में अधिक देर रहने से अंगुलियां संज्ञाहीन हो जाती हैं। कभी ठण्डे और कभी गरम पानी से हाथ-पांव धोना, सर्दी में हाथ-पैर धोकर खुश्क न करना, ठण्डी वायु लगना इत्यादि इस रोग के कारण होते हैं। उपचार- इसकी सर्वोत्तम चिकित्सा ठण्ड से बचना है। पीड़ित स्थान पर सूखी (बगैर तैल आदि लगाये) मालिश करना लाभप्रद है। सूर्य स्नान भी लाभप्रद है। कृत्रिम अल्ट्रावायलेट किरणों का अधिक देर उपय...

कारवंकल, राजफोड़ा,boils,aditya foda,madhumeh peedika,sakraburd,pusthaburd,code,mavadifode

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(कारवंकल, राजफोड़ा,boils,aditya foda,madhumeh peedika,sakraburd,pusthaburd,code,mavadifode) रोग परिचय-इस फोड़े को अदीठ फोड़ा, मधुमेह पीड़िका, शर्करार्बुद पृष्ठार्बुद आदि नामों से भी जाना जाता है। यह फोड़ा अधिकतर गर्दन, पीठ और चूतड़ की चर्म और उसके गहरे मांस में निकला करता है। यह फोड़ा खतरनाक होता है। प्रायः यह फोड़ा मधुमेह के रोगियों को निकलना है। इस फोड़े की चर्म अत्यधिक लाल हो जाती है और इसमें सख्न दर्द और शोथ होती है। व्रण निरन्तर बढ़ता और फैलता जाता है और काला सा हो जता है। उसके बाद उस पर एक छाला सा पैदा होकर जब यह फूटता है तो इसमें कई छेद दिखाई देते हैं। घाव प्रतिदिन बढ़ता जाता है अन्ततः पूरे फोड़े की चर्म छलनी की भांति छिद्रयुक्त हो जाती है। कई बार बहुत से छोटे-छोट छेद मिलकर एक बड़ा सा छेद बन जाता है जिसमें से काले रंग के छिछड़े से निकलते हैं। इस फोड़े में हर समय पतली सी पीप बहती रहती है और यदि पीड़ित स्थान को दबाया जाए तो गाढ़ी पीप की कीलें निकलती हैं। रोगी को इस फोड़े के कारण बहुत अधिक कष्ट होता है। यदि इस फोड़े का उचित उपचार न किया जाए तो यह घातक सिद्ध हो सकता है। ...

कील-मुंहासे (Acne),pimples ,keel-muhase

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(कील-मुंहासे (Acne),pimples ,keel-muhase ) रोग परिचय-युवावस्था में होने वाला यह एक प्रकार का शोथयुक्त चर्म रोग है। यह प्रायः जवान (युवा) हो रहे युवक-युवतियों को ही होता है। इस रोगको मुख-दूषिका, युवा पिड़िका और वयोव्रण आदि नामों से भी जाना जाता है। यह 25-26 वर्ष की आयु में स्वयं ही दूर हो जाते हैं। इनका स्वास्थ्य पर भी कोई बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है। मात्र चेहरा भद्दा (बुरा) लगता है। मुंहासों की कीलों को तोड़ने पर लेसदार गाढ़ी पीप निकलती है। यह रोग प्रायः अजीर्ण, रक्त में गरमी की अधिकता, रक्तदोष, गरम भोजन और पेय पदार्थों का अत्यधिक सेवन, बबासीर का रक्त आने, मासिकधर्म बन्द हो जाने आदि कारणों से हो जाता है। चिकने चर्म वाले मनुष्यों को यह अधिक होता है। उपचार-रोगी धैर्यपूर्वक उपचार करें तथा पेट ठीक रखें, कब्ज न होने दें। पाचन शक्ति बढ़ायें । आँतें साफ रखें। विटामिन ए. 50 से 65 हजार यूनिट तक प्रतिदिन सेवन करना लाभप्रद है। खेलकूद, व्यायाम, खुली वायु में सुबह- शाम भ्रमण करना, उचित आहार-विहार रखें। इस रोग में सूर्य की किरणें (अल्ट्रावायलेट) का भी असर लाभप्रद होता है। • सब्जियाँ उबालक...

चम्बल,अपरस(Proriasis)psoriasis,chambal,apras,chamdi rog,pitt se hone wale chamdi rog

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(चम्बल,अपरस(Proriasis)psoriasis,chambal,apras,chamdi rog,pitt se hone wale chamdi rog) रोग परिचय-यह रोग प्रायः कुहनी, घुटनों, पीठ, छाती, जाँघों इत्यादि चर्म पर गुलाबी रंग के पित्त के सिरे जैसे छोटे-छोटे दानों के रूप में उत्पन्न होता है। इन दानों में पीप नहीं होती है। यह एक अत्यन्त हठीला रोग है जो वर्षों तक बना रहता है। कभी-कभी यह स्वतः दब जाता है किन्तु कुछ समय बाद अथवा विशेष मौसम में पुनः उभर आता है। यह रोग प्रायः गठिया, आमवात, दस्तों का पीप युक्त होना, टान्सिल और गर्भाशय ग्रीवा में जीवाणुओं के संक्रमण होने तथा घी, मक्खन आदि के अधिक सेवन करने तथा दांतों के विकार-पायोरिया आदि के कारण एवं अजीर्ण और उपदंश आदि रोगों के कारण यह रोग हो जाता है।प्रारम्भ में त्वचा पर गुलाबी या लाल अथवा बैंगनी रंग के बहुत ही छोटे- छोटे पीप रहित दाने निकलते है, जो बाद में आपस में मिलकर एक बड़ा ताम्रवर्ण का चकत्ता बन जाता है। इसके समीप की त्वचा पर लाल रंग का प्रदाहयुक्त एवं रोगाक्रान्त स्थान ऊँचा और सूखा सा हो जाता है। उस चाँदी के सदृश छिलके उतरते रहते हैं। इनमें पीप नहीं होती है किन्तु खुजली होती है...

छपाकी शीतपित्त (Irticaria)Urticaria,gulam pitt,seetpitt,chhapaki pitt

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(छपाकी शीतपित्त (Irticaria)Urticaria,gulam pitt,seetpitt,chhapaki pitt) रोग परिचय-इस रोग को-जुड़ी पित्ती, जुल्म पित्ती, शीत पित्ती, छपाकी इत्यादि कई नामों से जाना जाता है। रक्त की उष्णता के कारण शरीर पर चकत्ते या ददौरे पड़ जाते हैं, जो तेजी से खुजलाते हैं। रोग पुराना हो जाने पर इससे छुटकारा पाना अत्यधिक मुश्किल हो जाता है। कभी-कभी इसके साथ ज्वर भी हो जाता है। प्रायः यह रोग पाचक संस्थान की गड़बड़ी (अजीर्ण, अग्निमाद्य, मन्दाग्नि, कब्ज) अथवा स्वियों के गर्भाशयिक विकारों तथा वात रोग किसी प्रकार के जहरीले कीड़े-बर्र, मधुमक्खी, मच्छर, खैटैमल आदि के काटने से अथवा अत्यधिक शीत या धूप लग जाने, अत्यधिक परिश्रम, तनाव, चिन्ता, मानसिक उत्तेजना, किंसी खाद्य या पेय पदार्थ किसी औषधि-विशेष से होने वाली एलर्जी, धूल, धुआँ, गन्ध, सुगन्ध, ऋतु परिवर्तन, भोजन में अत्यधिक तेज मिर्च मसाले, घी-तैल का प्रयोग, खट्टे, चटपटे पदार्थों का सेवन, उपदंश रोग के विषाणुओं और सर्दी-गर्मी का एक साथ प्रकोप यथा- नहाकर जल्दी से ही कोई गरम कम्बल अथवा रजाई ओढ़ लेना अथवा जल्दी से गर्म चाय, कॉफी, दूध अथवा कोई गरम पदार्थ ...

एक्जिमा, छाजन, पामा,eczema,chhoti chhoti foonsiyan,chamdi rog,khujli,khujli se hone wale ghhav

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(एक्जिमा, छाजन, पामा,eczema,chhoti chhoti foonsiyan,chamdi rog,khujli,khujli se hone wale ghhav) रोग परिचय-इसे अकौता, चम्बल, छाजन, पामा, पानीवात आदि अनेक नामों से जाना जाता है। इसका प्रकोप चर्म पर खाज-खुजली, जलन तथा दर्द युक्त छोटी-छोटी बारीक फुन्सियों से प्रारम्भ होता है। यही छोटी-छोटी फुन्सियाँ या दानें खुजलाते-खुजलाते घाव का रूप धारण कर बड़ा आकार ग्रहण कर लेते हैं। रोग नया हो या पुराना, बड़ी कठिनाई से ठीक होता है। इस रोग का कारण पाचन विकार, शारीरिक कमजोरी, वंशज प्रभाव, वृक्क शोथ, मधुमेह, गाऊट (छोटे जोड़ों का दर्द) अन्य जोड़ों का दर्द, स्थानीय खराश, साबुन का अधिक प्रयोग, बच्चों का दाँत निकलना या पेट में कीड़े होना, पसीने की अधिकता, चर्म से भूसी उतरना इत्यादि हैं। (उपचार • पुनर्नवा (साठी) की जड़ 125 ग्राम को सरसों के तैल में मिलाकर पीसें। फिर 50 ग्राम सिन्दूर मिलाकर मरहम तैयार करलें। इस मरहम को कुछ दिन लगाने से चम्बल जड़मूल से नष्ट हो जाता है। शर्तिया दवा है। • सरसों के तैल 50 ग्राम में थूहर (सेंहुड़) का डन्डा रखकर खूब गरम करें। जब थूहर जेल जाए तब जले हुए डन्डे को बाहर फें...

रजोनिवृत्ति,menopause, 45 age ke baad period ka rukne se hone wali bimari

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(रजोनिवृत्ति,menopause, 45 age ke baad period  ka rukne se hone wali bimari ) रोग परिचय-यदि हकीकत में कहा जाए तो यह कोई रोग नहीं है। स्वी की आयु जब 45 से 48 वर्ष की हो जाती है तब उसको रजः आना धीरे-धीरे बन्द हो जाता है। तब स्त्री को विभिन्न प्रकार के रोग और कष्ट हो जाते हैं। कईस्वियों को मासिक समाप्त होने के पूर्व ही विभिन्न प्रकार के रोग और कष्ट हो जाते हैं और यह आवश्यक भी नहीं है कि प्रत्येक स्वी को तमाम लक्षण और कष्ट हों अर्थात् किसी स्त्री को इनमें से कोई रोग व कष्ट और दूसरी अन्य किसी स्वी को अन्य कष्ट हुआ करता है। स्वी के मुख, सिर, गर्दन और गले के ऊपरी भाग में लाली और गर्मी उत्पन्न हो जाती है, पसीना अधिक आता है। प्रायः समस्त शरीर पर लाली-सी दिखाई देती है, सिरदर्द और सिर में चक्कर, मितली, बेचैनी, नींद न आना, भूख हट जाना, अजीर्ण, विड़चिड़ापन, क्रोध, भय, घबराहट इत्यादि कष्ट हो जाते हैं। बहुत-सी स्वियों को हाईब्लड प्रेशर, वहम और पागलपन का रोग हो जाता है। मासिक बन्द होने के समय कई स्त्रियों का गर्भाशय बड़ा हो जाता है जिससे उनको बहुत अधिक मात्रा में रक्त आने लगता है। प्रा...

स्नायु दुर्बलता,sareer ki kamjori, har tareh ki kamjori, bimari ke baad ki kamjori

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(स्नायु दुर्बलता,sareer ki kamjori, har tareh ki kamjori, bimari ke baad ki kamjori ) इस रोग से ग्रसित रोगी भी अत्यन्त कमजोर हो जाता है। उसकी सहन शक्ति नष्ट हो जाती है। थोड़ा-सा शारीरिक अथवा मानसिक श्रम करने से ही रोगी थक जाता है। थोड़ी-सी उत्तेजना से ही उत्तेजित हो जाता है तथा हीनता- भाव से बौखलाकर भाव-विह्वल हो अँसू बहाने लगता है। ऐसी दशा में निम्नलिखित पेटेन्ट आयुर्वेदिक योगों का सेवन करें। नारड्रिल टेबलेट (हिमालय) - 1-2 टिकिया दिन में 2-3 बार या आवश्यकतानुसार लें । कब्ज न रहने दे तथा गैस का विकार भी न होने दे। गैन्डिको (डिशेन)- हृदय की शक्ति हेतु अत्युत्तम। दिल की धड़कन बढ़ने व सांस फूलने में उपयोगी है। गुर्दे की सूजन तथा पेशाब कम उतरने व जलोदर में भी उपयोगी है। यह औषधि नशीली अथवा उत्तेजक भी नहीं है। ये 1-2 टिकिया दिन में 2-3 बार दें। बायोसाल ग्राइपवाटर (डिशेन) बच्चों व शिशुओं के दाँत निकलने व पाचन सम्बन्धी विकारों हेतु अति उपयोगी। नवजात शिशुओं को चौथाई चम्मच दिन में 2 बार इसे तथा 1 से 6 माह के बच्चों के लिए आधी चम्मच दिन में 2 बार। 6 माह से 1 वर्ष आयु के बच्चों के लिए ...

रोग के बाद की दुर्बलता,rogon ke baad ki durbalta

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(रोग के बाद की दुर्बलता,rogon ke baad ki durbalta) रोग से उठने के उपरान्त प्रायः हर रोगी काफी कमजोर, कृषकाय, दीनहीन कमजोर और दुर्बल हो जाता है। ऐसी अवस्था में निम्नलिखित पेटेन्ट आयुर्वेदिक योगों का सेवन करें, लाभप्रद है। रसायन वटी (राजवैद्य शीतल प्रसाद)- प्रत्येक प्रकार की दुर्बलता नाशक है। 1-2 टिकिया दिन में 2-3 बार अथवा 2-2 सुबह-शाम दूध से लें। ओजस लिक्विड (चरक) - 1-2 छोटे चम्मच दिन में 2 बार भोजन से पूर्व समान जल मिलाकर । or पंचारिष्ट पेय (झन्ड)- 10 से 30 मि.ली. दिन में 2 बार भोजनोपरान्त । सोमपान सीरप (राजवैद्य शीतल प्रसाद)-2-4 चम्मच दिन में 2 बार व्यस्कों को दें। बच्चों को आधी मात्रा सेवन करायें । आरोग्य मिश्रण (धूतपापेश्वर) - 1-2 चम्मच दिन में 2-3 बार दें। स्टेनेक्स टेबलेट (झन्ड्) - युवा और वृद्धों हेतु उपयोगी है। 2-4 टिकिया दिन में 3 बार सेवन करें ।मेनोलटेबलेट (चरक)-2-2 टिकिया दिन में 2-3 बार दें। शतावरक्ष सीरप (झन्दू) - 1 से 4 चम्मच शर्बत को सुबह-शाम दूध में डालकर लें । अंगूरासब (झन्डू) -2 से 4 चम्मच दिन में 2 बार भोजनोपरान्त लें ।

स्मरण-शक्ति की क्षीणता,dimaag kamjor hona,yadast kamjor hona,bhoolne ki bimari,bhoolna

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(स्मरण-शक्ति की क्षीणता,dimaag kamjor hona,yadast kamjor hona,bhoolne ki bimari,bhoolna)) रोगी की याददाश्त कमजोर हो जाती है। वह अपनी ही वस्तुओं को यहाँ तक कि रिश्तेदारों और मित्रों के नाम तक को भूल जाता है निम्न दवा दें- स्वप्नहरी टेबलेट (डाबर) 1-2 टिकिया दिन में 2 बार । अथवा आवश्यकतानुसार दें। पेट साफ रखें। कब्ज न रहने दें। दिमागीन (मु. तिब्बिया यूनिवर्सटी अलीगढ़) (यूनानी योग) 5-5 ग्राम बिस्कुट पर लगाकर सुबह-शाम खायें ।गावजवां अम्बरी जवाहर बालाखास (हमदर्द) (यूनानी योग) 5-5 ग्राम सुबह-शाम दूध से लें । शंखपुष्पी सीरप (ऊंझा) 1-2 ड्राम दिन में 2-3 बार दें। शर्वत ब्राह्मी (गर्ग) 10-20 मि.ली. दिन में 2 बार लें। ब्राह्मी शंखपुष्पी कैपसूल (गर्ग) आवश्यकतानुसार 1-2 कैपसूल लें। ब्राह्मी तैल (झन्डू) आवश्यकतानुसार सिर में मालिश करें। बाजार में अन्य (नवरत्न तैल, हिमताज तैल, जयगंग तैल इत्यादि भी आते हैं) यह समस्त तैल भी लाभप्रद है। लीवर एक्सट्रेक्ट ऑफ ब्राह्मी (झन्ड्) 4 से 8 मि.ली. अथवा आवश्यकतानुसार दिन में 3 बार जल के साथ लें । ब्राह्मी शंखपुष्पी घनसत्व (गर्ग) 1-1 ग्राम सुबह-शाम जल से ...

अत्यार्त्तव, अति रजः,masik dharam na rukna,period na rukna

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(अत्यार्त्तव, अति रजः,masik dharam na rukna,period  na rukna) रोग परिचय- इस रोग में मासिकधर्म अत्यधिक मात्रा में और नियत काल से अधिक दिनों तक आता रहता है। इस रोग के कारणों में निम्नलिखित 6 कारण प्रमुख रूप है। स्वी को भीतरी जननेन्द्रियों के रोग जैसे- (1) गर्भाशय शोथ, गर्भाशय झुक जाना, गर्भाशय की बबासीर और घाव, फैलोपियन ट्यूबों और डिम्बाशय की शोथ, प्रसवोपरान्त गर्भाशय का सिकुड़कर अपनी प्राकृतिक अवस्था में न आना, गर्भाशय का कैन्सर और रसूलियां तथा रजोनिवृत्ति इत्यादि । (2) रक्त संचार सम्बन्धी रोग, जैसे- यकृत् का सख्त हो जाना, हाई ब्लड प्रेशर एवं हृदय सम्बन्धी कई रोग (3) हारमोन्स ग्रन्थियों के दोष, जैसे-थायरायड ग्लैन्ड का बढ़ जाना इत्यादि (4) रक्त विकार सम्बन्धी रोग जैसे- स्कर्वी, दाँतों और मसूढ़ों से खून आना) परप्यूरा आदि। (5) तीव्र ज्वर जैसे- टायफाइड, मलेरिया, इन्फ्लूएन्जा इत्यादि । (6) स्नायु उत्तेजना, नाड़ी संस्थान की कमजोरी, चिन्ता, क्रोध, बहम (संदेह) अत्यधिक सम्भोग एवं अत्यधिक प्रसन्नता इत्यादि ।नोट-यदि मासिक नियत समय के अतिरिक्त आने लग जाए तो इसको अंग्रेजी में मेट्रोर...

कष्टार्तव, मासिकधर्म का कष्ट के साथ आना,period pain,masik dharam mein dard hona

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(कष्टार्तव, मासिकधर्म का कष्ट के साथ आना,period pain,masik dharam mein dard hona) रोग परिचय- इस रोग (डिसमेनोरिया) में स्त्रियों को मासिकधर्म आने से 1-2 दिन पूर्व और आने के समय गर्भाशय पेडू और कमर में दर्द हुआ करता है। इसी स्थिति में रोगिणी को मासिक कम या अधिक मात्रा में भी आ सकता है। अनिद्रा, सिरदर्द और बेचैनी इत्यादि लक्षण पाये जाते हैं। नोट-जब जवान लड़कियों को प्रथम बार मासिक धर्म आता है तो भीतरी जननेन्द्रियों की ओर रक्त संचार तेज होकर वहाँ की रक्तवाहिनियां रक्त की अधिकता के कारण उधर और तन जाती हैं। इसी कारण पेडू, कमर, गर्भाशय, जांघों और पिन्डलियों में थोड़ा या बहुत दर्द होने लगता है किन्तु 2-3 बार आ चुकने पर यह कष्ट स्वयं दूर हो जाते हैं। इस के भी दो कारण होते हैं- (अ) जन्मजात दोष यथा- गर्भाशय की रचना में भी विकार, गर्भाशय की गर्दन का लम्बा होना, गर्भाशय के मुख का छोटा होना, गर्भाशय की मांसपेशियों की कमजोरी, डिम्बाशय के तरल में कमी, स्नायविक संस्थान की दुर्बलता आदि। (आ) गर्भाशय में असाधारण रूप से रक्त एकत्रितहो जाना जैसे-गर्भाशय का पीछे की ओर झुक जाना, गर्भाशय या उसकी झि...

नष्टार्तव, मासिकधर्म बन्द हो जाना,masik dharam band hona,period,period band hona

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(नष्टार्तव, मासिकधर्म बन्द हो जाना,masik dharam band hona,period,period band hona) रोग परिचय- इस रोग में मासिकधर्म बिल्कुल ही बन्द हो जाता है अथवानियत समय से बहुत देर बाद अल्प मात्रा में दर्द और कष्ट से आता है। यदि रजोधर्म आरम्भ से ही बन्द हो तो 'आरम्भिक कष्टार्तव' (प्राइमरी ऐमेनोरिया) और यदि मासिक धर्म पहले नियमित रूप से आता रहा हो और बाद में किसी विकार के कारण बन्द हो गया हो तो 'गौण आर्त्तव' (सेकेन्डी ऐमेनोरिया कहलाता है। इस रोग के 3 प्रकार हुआ करते है- (अ) आरम्भ से ही स्राव बन्द होना, (ब) 1 या 2 बार प्रदर आकर बन्द हो जाना, (स) मासिकधर्म का उत्पन्न तो होना किन्तु रास्ता बन्द होने के कारण उसका जारी न हो सकना । इस रोग का प्रथम कारण जन्म से गर्भाशय या डिम्बाशय का न होना अथवा. बहुत छोटा होना होता है। डिम्बाशय का सम्बन्ध पिच्यूट्री ग्लैन्ड से होता है, इसलिए यदि इस ग्लैन्ड में कोई विकार हो तो भी डिम्बाशय का पूरा पालन पोषण नहीं हो सकता है। दूसरा कारण रक्त अल्पता अथवा रक्त का अत्यधिक गाढ़ा हो जाना अथवा कोई पुराने रोग जैसे- मधुमेह, क्षय, कैन्सर, वृक्कों सम्बन्धी रो...

फेलोपियन ट्यूबों का गल जाना,fallopian tube ka gaal jana

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(फेलोपियन ट्यूबों का गल जाना,fallopian tube ka gaal jana) रोग परिचय-कई बार स्त्रियों के फैलोपियन ट्यूबों में घाव हो जाया करते है और कई बार उसका कुछ भाग गल-सड़कर नष्ट हो जाया करता है। घाव होने पर उस स्थान से पीप और पीला बदबूदार तरल गर्भाशय में आकर योनि से निकलता रहता है। साथ ही स्वी के पेडू और कमर में सख्त दर्द होता रहता है और मासिक के समय यह दर्द अधिक होने लगता है तथा मासिक अनियमित आने लगता है। नाली का गल-सड़कर कुछ भाग (हिस्सा) भी नष्ट हो जाता है। इस कारण स्वी का अण्डा (ओवम) डिम्बाशय से गर्भाशय तक नहीं पहुँच पाता है। फलस्वरूप रुग्णा को गर्भ नहीं ठहरता है और वह जीवन भर के लिए बाँझ हो जाती है। यह रोग फैलोपियन ट्यूबों के फट जाने उपदंश और सूजाक आदि रोगों और अन्दर फोड़ा बन जाने के कारण हो जाता है। उपचार-किसी हल्के ऐन्टीसैप्टिक लोशन जैसे- डेटोल, सैवलान, बोरिक एसिड पाउडर अथवा मरक्यूरोक्रोम (चोट, घाव में लगाने वाला लाल टिंक्बर की दवा) अथवा नीम की पत्तियों के क्वाथ आदि से गर्भाशय में डूश करते रहना चाहिए। रक्त को शुद्ध करने वाली औषधियों जैसे-मन्जिष्ठादि क्वाथ, सारिवाद्यारिष्ट, खदिरार...

फैलोपियन प्रणालियों का फट जाना,fallopian tube ka fast jana)

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(फैलोपियन प्रणालियों का फट जाना,fallopian tube ka fast jana) रोग परिचय- फैलोपियन ट्यूब स्वी की योनि के भीतरी अंग के अन्तर्गत होती है। यह गाय की दुम की भाँति दो पतली नलियाँ हैं, जो गर्भाशय के दोनों ओर ऊपरी भाग. में डिम्बाशय और गर्भाशय के मध्य में स्थित होती है। इसकी प्रत्येक नली की सामान्यतः लम्बाई 11 या 12 सेन्टीमीटर तक होती है और गर्भाशय के ऊपरी किनारे से प्रारम्भ होकर गर्भाशय के चौड़े बन्धन पेडू में मूत्राशय और मलाशय के मध्य में होती है, इसकी औसत लम्बाई अधिक सन्तानें वाली स्वियों में (10 सेमी. लम्बाई, 6 सेमी. चौड़ाई तथा 4 सेमी. मोटाई और वजन लगभग 30 से 40 ग्राम होता है। यह आठ बन्धनों द्वारा अपने स्थान पर स्थित रहती है। यह बन्धन 1. गोल बन्धन (राउन्ड लिगमेन्टस, 2. चौड़े बन्धन (ब्राड लिगमेन्टस, 3. अगले बन्धन (एन्टेिरियर लिगेमेन्ट्स तथा 4. पिछले बन्धन(पोस्टेरियर लिगमेन्ट्स) प्रत्येक बन्धन 2-2 अर्थात् कुल निलाकर 8 बन्धन है। चौड़े बन्धन भी अन्य तीनों बन्धनों की भांति 2 होते है और यह गर्भाशय के दोनों ओर दांये व बांये पहले से पेडू की ओर दीवारों तक जाते हैं। प्रत्येक बन्धन की 2 तह ...